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सरस्वती-नदी के कतिपय पौराणिक विशेषण
युक्तमेव अलङ्कृत किया गया है।
जैसा कि पहले बताया गया है कि नदियों से सदैव कल्याण की आशा रही है । वे सबके लिए समान रूप से उदार रही हैं । अन्य नदियों की अपेक्षा ग्रङ्गा, सिन्धु एवं सरस्वती की उदारता सर्वज्ञात है । इसको एक पौराणिक दृष्टान्त से भली-भाँति आँका जा सकता है। कहा जाता है कि आर्य एवं अनार्य दोनों गङ्गा, सिन्धु एवं सरस्वती के पड़ोस में रहा करते थे तथा वे विना किसी भेद-भाव के इन नदियों का जल ग्रहण करते थे । यह स्पष्ट है कि दो भिन्न मतावलम्बियों की स्वतन्त्र इयत्ता किसी सिद्धान्त पर आधारित होती है, अत एव पारस्परिक वैमनस्य अथवा मतमतान्तर का होना स्वाभाविक सी बात है, परन्तु उपर्युक्त दृष्टान्त में इस सिद्धान्त का खंडन दीख पड़ता है। इन नदियों ने आर्य एवं अनार्य दोनों को ऐसा वातावरण प्रस्तुत किया था कि वे पारस्परिक भेद-भाव को भूलकर मित्र-भाव से साथ-साथ रहा करते थे। सामहिक रूप से 'सरिद्वराः' की उपाधि सरस्वती, देविका एवं सरयू को दी गई है। यह विशेषण तुलनात्मक भाव को अभिव्यक्त करता है, अर्थात् इस विशेषण द्वारा यह ज्ञात होता है कि अन्य नदियों की तुलना में सरस्वती, देविका एवं सरयू श्रेष्ठ हैं । व्यक्तिगतरूप से 'सरिदरा' प्रत्येक नदी के लिए लागू होता है । सरस्वती का एक विशेषण ‘ब्रह्मनदी है । ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मा से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण उसे यह उपाधि मिली है । यही वह ब्रह्मनदी सरस्वती है, जिसमें परशुराम ने अपना 'अवभृथ स्नान' किया था।
उपर्युक्त में सरस्वती के केवल प्रमुख विशेषणों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । देवी-रूप में उसके अनेक विशेषण हैं, जिनका फूटनोट में संकेत कर दिया गया है। उन पर अन्यत्र गहराई के साथ स्वतन्त्र विचार किया जा सकता है तथा उचित सारांश निकाला जा सकता है ।
१. मत्स्यपुराण, ११४.२० २. वही, १३३.२४ ३. भागवतपुराण, ६.१६.२३