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________________ संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ ........... दुदिता सती परेत्युच्यते । नादस्य च सूक्ष्मत्वेन दुनिरूपत्वात्", नादरूपात्मिका वाक् के एक ही मूलभूत स्रोत से उद्ध्त होने के वारण उसका प्रथम पद 'परारूप' से स्वयं ही कारणरूप है, अत एव उसे युक्त ही 'परा' की संज्ञा दी गई है । वह अत्यन्त सूक्ष्म है। फलतः उसका निरूपण नहीं किया जा सकता। वह 'ब्रह्मरूप' अथवा 'ब्रह्ममय' है । वैदिकेतर काल में ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता माना गया है, परन्तु वेदों में 'ब्रह्मा' नाम का सर्वथा अभाव हैं । यहाँ पर ब्रह्मणस्पति, वाचस्पति आदि को प्रधानता दी गयी है। पौराणिक युग में सृष्टि-कर्ता को ब्रह्मा कहा गया हैं । वैदिक काल में यही ब्रह्मा ब्रह्म, ब्रह्मणस्पति तथा वाचस्पति कहा गया है । औपनिषदिक काल में यही बृहस्पति अथवा ब्रह्मन् (बृह, वर्धने पाच्छादने वा) नाम से पुकारा जाता है । यह वाक् का स्वामी है । पौराणिक युग में सरस्वती को वाक्, वाग्देवी तथा वाग्रूप स्वीकार किया गया हैं। यहीं सरस्वती को ब्रह्मा के मुखसे उत्पन्न हुई बताया गया है, अत एव वह ब्रह्मा वाग्रूप सरस्वती का स्वामी है तथा अधिपति है। तद्वत् भाव अन्य ब्रह्मणस्पति, वाचस्पति, बृहस्पति, ब्रह्मन् आदि से ध्वनित होता है । वागाम्भणी सूक्त के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वाक् का कितना महत्त्व हैं । यह स्वयं ही अपनी तुलना रुद्र, आदित्य, विश्वे देवा, मित्र, वरुण, इन्द्र, अग्नि, अश्विन्, सोम, त्वष्टा, पूषण, भग आदि से करने में क्षम है। यहीं अन्य उपलब्ध प्रसङ्गों से उसके द्वारा ही जगत्सृष्टि का सिद्धान्त प्रकाश में आता है। ऋग्वेद में वाक् वाणी का मानवीकृत रूप हैं, जिसके द्वारा ज्ञान की किरण मनुष्य तक पहुँची। यह सर्वप्रथम ऋषियों में प्रविष्ट हुई तथा उनके माध्यम से ज्ञान का प्रसार हुआ। इसकी सृष्टि देवों ने की। इसी कारण वाक् को 'दिव्य' कहा गया है । इसे 'कामधेनु' की संज्ञा दी गई है, क्योंकि यह जल तथा जीविका का साधन है। ब्राह्मण ग्रंथों में वाक् का दिव्यत्व अत्यन्त निखरा हुआ है। यहाँ यह देवों के अत्यन्त निकट आ गई है । यह वेदों की माँ है और विश्व की जननी है । इससे वाक् की शक्ति तथा प्रभुता का अनुमान लगाया जा सकता है । प्रजापति को विश्व का स्वामी तथा कर्ता कहा जाता है । हम ने पहले बताया है कि प्रजापति, बृहस्पति, ब्रह्मणस्पति तथा ब्रह्मन् तत्त्वतः एक हैं । वाक् से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध है, अत एव ये वाक् के स्वामी अथवा ईश हैं शतपथब्राह्मण में विश्व की उत्पत्ति प्रजापति तथा वाक् की सहायता से बतायी गयी है। जब प्रजापति को सृष्ट्येच्छा हुई, तब उन्होंने अपने मस्तिष्क से वाक् को उत्पन्न किया । तदनन्तर उस वाक् से जल का सर्जन हुआ। इस सम्बन्ध में प्रजापति तथा वाक् के मध्य मैथुन सम्बन्ध हुआ, फलतः वाक् ने गर्भ धारण किया। वह प्रजापति से विलग हो गई और इस संसार की सृष्टि की । तदनन्तर प्रजापति में प्रविष्ट हो गई। गायत्री वाग्रूप है । इसका क्षरण सुष्टि की इच्छा से आठ बार हुआ । इसका यह क्षरण प्रजापति का क्षरण-व्यापार ही है ।३८ इस प्रकार वाक् प्रजापति-रूप है । प्रजापति से विलग होने पर इसकी स्वतंत्र सत्ता है । यह सृष्टि-कर्ता की इच्छा-स्वरूप है और उसकी इच्छा ही वाणी-रूप में व्यक्त
SR No.032028
Book TitleSanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuhammad Israil Khan
PublisherCrisent Publishing House
Publication Year1985
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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