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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
fled to the Anshumati, flowing in the kuruksetra region. He settled there along with him. They used Soma, and thereby evolved Soma-sacrifices.
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शतपथब्राह्मण से ज्ञात होता है कि सरस्वती का जल पवित्रीकरण - संस्कार में प्रयुक्त होता था । इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि पवित्रीकरण - संस्कार जल से नहीं, अपितु वाक् से किया गया। इस प्रकार इस कथन से जल का तादात्म्य वाक् से दिखाया गया है । इस कथन को स्पष्ट रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है । यश सरस्वती के तटों पर सम्पन्न हुए तथा यज्ञों के सम्पादनार्थ सरस्वती के आशीर्वादों की याचना की गई । तदनन्तर सरस्वती की स्तुति पवित्र वाणी के लिए की गई तथा सरस्वती नदी को ही वाक् तथा वाक् की देवी मान लिया गया । शतपथ ब्राह्मण से ज्ञात होता है कि यज्ञों में उच्चारित मंत्र वाक्-स्वरूप हैं तथा यज्ञों में मंत्रों के अधिक उच्चारण से स्वतः यज्ञ को ही वाक् कह दिया गया है ।" जब यज्ञ से सम्बद्ध देवों के सम्मानार्थ मन्त्रों का निरन्तर पाठ होता है, तब यज्ञ का ही देवों से तादात्म्य हो गया है। साथ ही साथ यज्ञ का तादात्म्य वाक् से माना गया है । "
१० ब्राह्मणों में जगत् सम्बन्धी वाक् की कथा :
ऋग्वेद में सरस्वती के लिए 'सप्तस्वसा
का प्रयोग हुआ है । सायणाचार्य तथा अन्य व्याख्याकारों ने सप्तस्वसा का अर्थ गायत्री आदि सात छन्द किया है । इन छन्दों में गायत्री, त्रिष्टुप् तथा जगती की विश्वविद्या ( Cosmology) के सम्बन्ध से अत्यधिक महत्त्व है । गायत्री के विषय में एक अत्यन्त सुन्दर कथा पाई जाती है । गायत्री को आठ अक्षरों वाली माना जाता है । गायत्री के ये आठ अक्षर प्रजापति के आठ क्षरण व्यापार हैं, जिन्हें प्रजापति ने आठ बार में किया था । प्रजापति ने ये आठ क्षरण-व्यापार उस समय किया, जब वह सृष्टि करना चाहते थे । इस कथा का प्रारम्भ इस प्रकार होता है । प्रारम्भ में प्रजापति अकेला था, अत एव वह अपने को पुनः उत्पन्न करने की इच्छा रखता था । एतदर्थ उसने तप किया तथा इस तप के फलस्वरूप जल उत्पन्न हुए । जलों ने प्रजापति से अपनी उपयोगिता के विषय में पूछा । प्रजापति ने कहा कि तुम्हें गर्म किया जाना चाहिए । फलतः वे तपाये गये तथा तपने
७६. डॉ० सूर्यकान्त, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० ११५
८० श० ब्रा० ५.३.४.३, ५.८
८९. वही, ३.१.४.६, १४ इत्यादि ।
८२. तु० गो० ब्रा० २.१.१२
८३. श० ब्रा० ३.१.४.६, १४ इत्यादि ।
८४. तु० डॉ० मुहम्मद इसराइल खाँ, पूर्वोद्धृत ग्रंथ, पृ० ३८-३९
८५, श० ब्रा० ६.१.३.१, ८५