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३८ . परिशिष्ट पर्व.
[दूसरा भवदेव' बोला हे ब्रह्मपुत्र ! वमन की हुई वस्तुके खानेसे तू कुत्तेसेभी निकृष्ट गिना जायगा, यह सुनकर 'नागिला' 'भवदेव' को कहने लगी कि महात्मन् ! यदि तू ऐसा जानता है और कहता है तो तू स्वयं मुझे वमन करके ग्रहण करनेको क्यों तैयार हुआ है ? मांस अस्थि रुधिर और मलमूत्रसे पूर्ण वमनसे भी अति निन्दनीय मुझे ग्रहण करनेकी इच्छावाला तू नहीं निकृष्टताको प्राप्त होगा? तू पर्वतपर जलते हुवे अग्निको देखता है मगर अपने पाहोंमें दहकती हुई ज्वालायें नहीं देख पड़ती ? क्योंकि तू स्वयं तो पतित होरहा है और दूसरोंको शिक्षा देता है, जिस पुरुषने अपने आत्माको उपदेश न दिया हो याने स्वयं तो अधमाचरण करता हो और दूसरोंको उपदेश देनेमें चतुर हो वह आदमी मनुष्यकी गिनतीमें नहीं आसकता, मनुष्यकी गिनतीमें वहीं आदमी आसकता है जो स्वयं अपने आत्माको उपदेश लगाकर परको उपदेश करे । 'नागिला' के इस प्रकारके वचनोंको सुनकर 'भवदेव' साधुपनेको स्मरण करके बोला कि हे भद्रे ! तूने मुझे भलिपकार शिक्षा देकर पापरूप कूवेसे बचाया
और जात्यंधके समान उन्मार्गमें जाते हुएको सरल रस्ता बता दिया। अब मैं स्वजन संबंधियोंसे मिलकर गुरुमहाराजके पास जाकर व्रतके अतिचारकी आलोचना लेके दुष्तप तपको तनूंगा। 'नागिला' बोली स्वजनोंसे मिलकर क्या लेगा? स्वजन संबंधि सबही तेरे स्वार्थमें विघ्नभूत होजायेंगे ।
इसलिए परमार्थ संबंधि गुरुमहाराजके चरणों में जाकर अतिचारकी आलोचना करके संयमकी आराधना कर । और मैंभी साध्विओंके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करूँगी।