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परिच्छेद.) भवदत्त और भवदेव. नवोदा वधू 'नागिला' का तुमने त्याग किया था वह 'नागिला' मैंही हूँ इतने समयमें योबनके व्यतीत होनेसे मेरे अंदर अब वह लावण्यता नहीं रही, जिसकी लालसासे तू यहां आया है । हे महाशय! घोरातिघोर नरकके साक्षीभूत विषयरूप कामदेवके शस्त्रोंका प्रहार न सहन करके स्वर्ग तथा मोक्षके मुख देनेवाली ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रयीको छोड़कर मेरे अंदर सुखकी आशा न कर, क्योंकि तेरे लिए तो मैं घोरपापकी खान हूँ, यदि मुझे ग्रहण करेगा तो पापके सिवाय तेरे हाथ और कुछ न आयगा, इसलिए हे मुने ! इस पापके गतसे बचकर गुरुमहाराजके पास जा और मेरे ऊपर राग करनेसे जो पाप लगा है गुरुमहाराजसे उसकी आलोचना करके सर्व सौख्यदायक यतिव्रतको आराध । 'नागिला' इस प्रकार मधुर वचनोंसे 'भवदेव' को बोध कर रहीथी, इतनेमेंही जो ब्राह्मणी 'नागिला' के साथ थी उसका लड़का वहां आया और अपनी मातासे कहने लगा हे मातः! मैं अभी एक जिजमानके यहां खीर खाकर आया हूँ और दूसरेके घरसे निमंत्रण आया है परंतु मेरे पेटमें पानी पीने तकभी जगह नहीं और यदि दूसरे घर जीमनेको न जाऊँ तो दक्षिणा मारी जायगी। - इसलिए यह उपाय ठीक है कि तू मेरे सामने एक भाजन रख दे मैं उस भाजनमें खाई हुई खीरको वमन करके दूसरे जिजमानके घर जीमके दक्षिणा ले. आऊँ और पश्चात् भूख लगनेपर इस वमन की हुई खीरको खालूंगा क्योंकि मेराही उच्छिष्ट भोजन मुझे खानेमें कोई. हरकत नहीं । ब्राह्मणी बोली कि हे पुत्र ! इस निन्दनीय कर्म करनेसे लोकमें तेरी बहुस निन्दा होगी, ऐसा करना ठीक नहीं। .............