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परिच्छेद . ]
प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी.
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करता है, प्रसन्नचंद्रका बोल पैछानकर सोमचंद्र तापसने बड़े हर्षपूर्वक अपने पुत्र के शरीरपर हाथ फेरा, प्रसन्न चंद्रभी पिताके हस्त स्पर्शसे पुलकांकित होगया, "वल्कलचीरी " भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हुआ बोला कि हे तात! आपके चरणकमलोंमें हंसके समान यह " वल्कलचीरी" प्राप्त होगया है । " वल्कलचीरी " के वचनको सुनकर सोमचंद्र हर्षसे फूला न समाया और " वल्कलचीरी " को मस्तक चुंबनपूर्वक ऐसा आलिंगन किया कि जैसे वर्षाकालका मेघ पर्वतको करता है । सोमचंद्र के नेत्रों में हर्षके अश्रु आगये उन अश्रुओंके ऊष्ण पानी से उनकी आँखोंके पड़ल दूर होगये । इस समय रवि शशीके समान कांतिवाले अपने दोनों पुत्रोंको देखकर " सोमचंद्र " को जो आनंद हुआ वह अकथनीय है । " प्रसन्नचंद्र" और "वल्कलचीरी" दोनों ही "सोमचंद्र" के सामने बैठ गये, “सोमचंद्र " ने अपने दोनों लड़कोंसे स्नेहपूर्वक कुशल प्रश्न किया कि हे पुत्रो ! तुमने सुखसे तो समय व्यतीत किया ? प्रसन्नचंद्रने हाथ जोड़कर उत्तर दिया कि हे तात! आपके चरणों के प्रतापसे सर्व प्रकारसे हमने सुखमय समय व्यतीत किया है परंतु मैंने पापीष्टने आपके साथसे " वल्कलचीरी " का वियोग कराकर आपको बड़ा भारी कष्ट पहुँचाया मुझे इस बातका बड़ाही खेद होता है इस पापसे मेरा कहां छुटना होगा ? । “ प्रसन्नचंद्र " इस प्रकार पिताके सामने अपने आत्माकी निंदा कर रहाथा, उस वक्त " वल्कलचीरी " उटजके अन्दर प्रवेश करके अपने उत्तरीय से तापसोंके पात्रोंकी प्रतिलेखना करने लगा और प्रतिलेखना करते करते " बल्कलचीरी " के मनमें यह चिंता उत्पन्न उत्पन्न हुई कि इसतरह पात्रोंकी प्रतिलेखना मैंने कभी पहले भी की है ? इस प्रकारकी ईहा पोह करते हुए " वल्कल