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.. परिशिष्ट पर्व. चौदहवाँ. . या बुद्धि जायते पश्चात् सा यदि प्रथमं ।
भवेन विनश्ये तदाकार्य न हसेत्कोपि दुर्जनः ।। ___ 'ललिताङ्ग' की अनुकंपासे रानी तथा दासी कुछ बचा हुआ जूठा भोजन उस अंध कूपमें डाल देती हैं उससेही विचारा 'ललिताङ्ग' अपनी जिन्दगी पूर्ण करता है । एक दिन वर्षाऋतु आनेपर खूब वर्षात वर्षा । राजमहलका सबही पानी उस कूवमें जा भरा क्योंकि राजमहलके पानीको बाहर जानेका रास्ता वहांसेही था । इस लिए ललिताङ्ग उस पानीके पूरमें बहकर नगरकी खाईमें आपड़ा और पानीके अत्यन्त झकोलोंसे मूर्छित होकर मसकके समान फूलके पानीके ऊपर तरता हुआ खाईके किनारेपर आलगा।
दैवयोगसे किसी कारण प्रसंग उस वक्त 'ललिताङ्ग' की धायमाता वहांपर आपहुँची । मसकके समान पानीसे पेट फूला हुआ देख 'ललिताङ्ग' को उसने पैछान लिया और खाईसे बाहर निकाल कर बड़ी हिफाजतसे अपने घर ले गई । उस वक्त 'ललिताङ्ग' मूर्छासे ऐसा होगया था मानो उसके शरीरमें प्राण है ही नहीं । 'ललिताङ्ग' के पेटका पानी निकालनेपर और उसे रूईके पहलोंमें दबानेसे उसकी मूर्छा दूर होगई । 'धायमाता' ने उसे अपनेही घरपे रखकर अच्छा किया । अब 'ललिताङ्ग' पहले सा होगया है । यहांपर उपनय यह है कि 'ललिताङ्ग' के समान सांसारिक जीव है, रानी 'ललिता' के साथ संभोग सुखके समान संसारमें विषयसुख हैं, जो पहले किंपाक फलके समान मधुर लगते हैं और परिणाममें अति दारुण होते हैं । कूपवासके समान गर्भावास समझना, गर्भावासमें जूठे भोजनके समान माताके उच्छिष्ट भोजनसे जीवका पोषण होता है, विष्टेके कूप