________________
परिच्छेद.]
नागश्री - ललितांग.
१६३
आज अन्तेउरमें परपुरुषकी शंका है । यह सुनकर राजा खुदही अन्तेउरकी तलाशी लेनेको चला । दूरसे आवाज न होने पावे इस लिए राजाने जूते उतार दिये और चुपचाप चोरके समान अन्तेउरमें जा घुसा । रानी 'ललिता' जब 'ललिताङ्ग' के -साथ स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा कर रही थी तब उसने अपनी दासीको दरवाजे पे बैठा रक्खा था इस लिए दासीने राजाको दूर.सेही आते देख शीघ्रही रानीको जना दिया। उस वक्त रानी तथा दासीको और कोई भी उपाय न सूझा । मकानके अन्दर पायखाना पास ही था । रानी तथा दासीने अपनी जान बचानेके लिए 'ललिताङ्ग' को उठाकर शीघ्रही उस अन्ध कूपमें डाल दिया, उस गंदकी के कूवेमें 'ललिताङ्ग' को नरकसे भी अधिक दुःख था मगर करे क्या अपने किये कर्मका फल भोगनाही पड़ा । पर्वतकी गुफाएँ उल्लुके समान 'ललिताङ्ग' उस दुर्गन्ध के कूवेमें रहा हुआ पूर्वानुभवत सुखको याद करके विचारता है - अरे ! मेरे कर्मोने मुझे कहां इस नरककी यातनामें लाकर पटका, राजाकी रानीके भोग विना मेरा क्या काम अटका हुआ था ? | यदि अब किसी तरह इस नरकावाससे निकल जाऊँ तो ताजिन्दगी कभी ऐसा काम न करूँगा । मनुष्यको विना विचारे कार्य करनेपर जो पश्चात्ताप होता है यदि विचारपूर्वक कार्य किया जाय तो वह पश्चात्ताप कभी न करना पड़े, मनुष्यको चाहिये कि जब कोई कार्य प्रारंभ करे तब प्रथम उसका अन्तिम नतीजा अर्थात् अन्तिम फलकी तर्फ खयाल कर लेना चाहिये । जो अकल और बुद्धि कार्य बिगड़नेपर स्फुरायमान होती है वह यदि पहले हो तो कभी कार्य बिगड़नेही न पावे लौकिक कहावत है कि
Valgo