________________
१३०
परिशिष्ट पर्व. दशवा. करते हुए उन दोनोंके टवट दाँत और चटचट नख बजते थे, नख और दाँतोंके आघातसे जो रुधिर निकला उससे और भी अधिक उनके मुख लाल रँगे गये । युवा 'वानर' ने उस बुढे 'वानर' को बिलकुल निःसत्त्व कर दिया, अब वह विचारा अपनी जान बचाकर भागनाही चाहता था कि इतनेमेंही उस युवा 'वानर' ने पासमें पड़ा हुआ एक पत्थर उठाकर उसके सिरमें मारा, पत्थर लगतेही उस बुढ्ढे 'वानर' को चकरी आगई । पत्थरके प्रहारकी दुःसह्य वेदनाको सहन करता हुआ अपने प्राणोंको लेकर विचारा वहांसे भाग निकला, एक प्रहारोंकी वेदना
और दूसरे पानीकी प्यास इन दोनोंसे उसका चित्त बहुत घभराया हुआ था। पानीकी तलासमें बहुत फिरा मगर कहीं भी पानीका पता न लगा, इसलिए बिचारा दीन होकर पहाड़में परिभ्रमण कर रहा था, इतनेमेंही उसने एक शिलाप्से झरता हुआ 'शिलाजतु' (शिलाजीत' देखा । 'शिलाजीत' को देखकर वह पानीकी इच्छासे उसकी तरफ चला और वहां जाकर पानीकी भ्रान्तिसे उस 'शिलाजीत' में अपना मुँह देदिया । 'शिलाजीत' में मुंह लगतेही ऐसा चिपक गया कि छुटाने के लिए बहुतही प्रयत्न किया गया मगर वहांसे जरा भी न हिला, मुँहको निकालनेके लिए उसने अपने दोनों हाथ भी डाले मगर हाथ भी पूर्ववत मुँहके समानही चिपक गये । अब वह विचारा लाचार होकर घभराया और मुँह हाथ छुटानेके लिए उसने अपने दोनों पाँव भी डाल दिये, इस प्रकार पाँचोही अंग 'शिलाजीत' से बँध जानेपर विचारा खराब मृत्युसे मरके दुर्गतिको प्राप्त हुआ । जैसे 'वानर' 'शिलाजीत' के स्वभावको न जानकर पानीकी भ्रांतिसे अपने पाँचोही अंग उसमें डालके खराब मृत्युको प्राप्त हुआ, वैसेही शिलाजीतके स