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परिच्छेद.] शंखधमक, वानर और सिद्धि बुद्धि. १२९ लेता, अत एव उसके भयसे सबही वानर उस स्थानको छोड़कर अन्य स्थानपर भाग गये । पीछे वह सबही वानरियोंका स्वामी बन बैठा । अब निःशंक होकर वह 'वानरराज' उन सब वानरियों के साथ यथेच्छ क्रीड़ा करता हुआ अपने समयको आनन्दसे निर्गमन करता है । इस प्रकार समय विताते हुए उस वानरकी युवावस्था व्यतीत होजानेपर तृष्णाको बढ़ानेवाली और शरीरको निःसत्त्व करनेवाली वृद्धावस्था आगई । एक दिन उस वानरियोंके टोलेमें एक युवा 'वानर' कहींसे आघुसा, उस वानरको देखकर वे सबही युवा वानरियाँ उसके ऊपर रागवाली होगई । वह वानर भी उनके ऊपर स्नेह प्रगट करके पक्के हुए दाड़म (अनार) के समान उनका मुँह चूबने लगा और किसीके गलेमें केतकीके पुष्पोंका हार बनाकर डालता है, किसीकी अंगुलीमें विचित्र प्रकारके घासकी अंगुठी बनाकर पहनाता है और किसीके साथ स्वेच्छापूर्वक आलिंगन करता है, उन वानरियोंके पति उस बुड्ढे वानरको कुछ भी न गिनकर जब वह युवा 'वानर' इस प्रकार क्रीड़ा करने लगा तब वानरियाँ भी उसे अपना खामी समझके कोई तो कदलीके पत्रसे उसे पंखा करने लगी, कोई कमलोंका मुकुट बनाकर उसके सिरपर रखती है और कोई प्रेममें आकर अपने नखोंसे उसके बालोंको ठीक करती है । इनकी यह सब चेष्टा पर्वतके शिखपर चढ़े हुए उस बुड्ढे 'वानर' ने देखी और देखतेही क्रोधसे अग्निके समान मुख लाल कर पूँछको ऊँची उठाके उस 'वानर' के सामने दौड़ा। मगर वह मदोन्मत युवा 'वानर' उससे कब डरता था, इस लिए वह भी क्रोधसे घुरघुरा कर उसके सामनेही आया । परस्पर दोनों वानर ऐसे लड़ने लगे जैसे कोई अखाड़ेमें दो मल्ल कुस्ती लड़ते हों । युद्ध 17