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मोक्षाधिकार
जीव तथा बंध नियत स्वलक्षणों से छेदे जाते हैं। प्रज्ञारूपी छैनी से छेदे जाने पर वे नानात्व (भिन्नपने) को प्राप्त होते हैं।
(२९५-२९६) जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। बंधो छेददव्वो सुद्धा अप्पा य घेत्तव्वो। कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा। जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो।
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों। बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आतमा|| जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे।
उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। इसप्रकार जीव और बंध अपने निश्चित स्वलक्षणों द्वारा छेदे जाते हैं। ऐसा करके बंध को छोड़ देना चाहिए और आत्मा को ग्रहण करना चाहिए। __ वह आत्मा कैसे ग्रहण किया जाये ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि उसे प्रज्ञा से ही ग्रहण किया जाता है। जिसप्रकार प्रज्ञा से भिन्न किया; उसीप्रकार प्रज्ञा से ग्रहण करना चाहिए।
(२९७ से २९९) पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। पण्णाए चित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। पण्णाए चित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा । इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो चेतता। अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना।।