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.......... --~-गाथा समयसार
चाहता; इसलिए वह पुण्यरूप धर्म का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पापरूप अधर्म को नहीं चाहता; इसलिए वह पापरूप अधर्म का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी भोजन को नहीं चाहता है; इसलिए वह भोजन का परिग्रही नहीं है; किन्तु उसका ज्ञायक ही है। ___ अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पेय को नहीं चाहता; इसलिए वह पेय का परिग्रही नहीं है, किन्तु उसका ज्ञायक ही है।
इसीप्रकार और भी अनेकप्रकार के सभी भावों को ज्ञानी नहीं चाहता; क्योंकि वह तो सभी भावों से निरालम्ब एवं निश्चित ज्ञायकभाव ही है।
(२१५) उप्पण्णोदय भोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं । कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।।
उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है।
अर अनागत भोग की सदज्ञानि के कांक्षा नहीं। जो वर्तमान में उत्पन्न उदय का भोग है, वह ज्ञानी के सदा ही वियोगबुद्धिपूर्वक होता है और ज्ञानी आगामी उदय की वांछा नहीं करता।
(२१६) जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं। तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि।। वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय।
ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे॥ वेदन करनेवाला भाव और वेदन में आनेवाला भाव – दोनों ही समय-समय पर नष्ट हो जाते हैं । इसप्रकार जाननेवाला ज्ञानी उन दोनों भावों को कभी भी नहीं चाहता।