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गाथा समयसार
( २०६ ) एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।
इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो । बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।
हे भव्यप्राणी ! तू इस ज्ञानपद को प्राप्त करके इसमें ही लीन हो जा, इसमें ही निरन्तर सन्तुष्ट रह और इसमें ही पूर्णत: तृप्त हो जा; इससे ही तुझे उत्तम सुख (अतीन्द्रिय-सुख ) की प्राप्ति होगी ।
( २०७ )
कोणाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ।।
आतमा ही आतमा का परिग्रह
यह जानकर । 'पर द्रव्य मेरा है'- बताओ कौन बुध ऐसा कहे ? |
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अपने आत्मा को ही नियम से अपना परिग्रह जानता हुआ कौन-सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है ?
( २०८ - २०९ )
मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ॥ छिज्जदुवा भिज्जदुवा णिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।।
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे । पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं । छिद जाय या ले जाय कोई अथवा प्रलय को प्राप्त हो । जावे चला चाहे जहाँ पर परिग्रह मेरा नहीं ॥
यदि परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्व को प्राप्त हो जाऊँ ।
चूँकि मैं तो ज्ञाता ही हूँ; इसलिए परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा नहीं है।