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......~~-गाथा समयसार
पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं। किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ॥ इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा ।
कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहिचान कर॥ जिनेन्द्र भगवान ने कर्मों के उदय का विपाक (फल) अनेकप्रकार का कहा है; किन्तु वे मेरे स्वभाव नहीं हैं; मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। __राग पुद्गलकर्म है, उसका विपाकरूप उदय मेरा नहीं है; क्योंकि मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। ___ इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपने आत्मा को ज्ञायकस्वभाव जानता है और तत्त्व (वस्तु के वास्तविक स्वरूप) को जानता हुआ कर्म के विपाकरूप उदय को छोड़ता है।
(२०१-२०२) परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।। अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।।
अणुमात्र भी रागादि का सद्भाव है जिस जीव के। वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को॥ जो न जाने जीव को वे अजीव भी जानें नहीं।
कैसे कहें सदृष्टि जीवाजीव जब जानें नहीं? ॥ जिन जीवों के परमाणुमात्र (लेशमात्र) भी रागादि वर्तते हैं, वे जीव समस्त आगम के पाठी होकर भी आत्मा को नहीं जानते।
आत्मा को नहीं जाननेवाले वे लोग अनात्मा को भी नहीं जानते। इसप्रकार जो जीव और अजीव (आत्मा और अनात्मा) दोनों को ही नहीं जानते; वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं ?