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------माथा समयसार
पुण्य एवं पाप से निज आतमा को रोककर। अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें। विरहित करम नोकरम से निज आत्म के एकत्व को। निज आतमा को स्वयं ध्यावें सर्व संग विमुक्त हो। ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते।
अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों। आत्मा को आत्मा के ही द्वारा पुण्य-पाप इन दोनों योगों से रोककर दर्शन-ज्ञान में स्थित होता हुआ और अन्य वस्तुओं की इच्छा से विरत होता हुआ, जो आत्मा सर्वसंग से रहित होता हुआ, अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याता है और कर्म तथा नोकर्म को नहीं ध्याता एवं स्वयं चेतयितापन होने से एकत्व का चिन्तवन करता है, अनुभव करता है; वह आत्मा, आत्मा को ध्याता हुआ, दर्शन-ज्ञानमय और आनन्दमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है।
(१९० से १९२) तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरिसीहिं। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य॥ हेदुअभावे णियमा जायदिणाणिस्स आसवणिरोहो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायदि णिरोहो। णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि। बंध के कारण कहे हैं भाव अध्यवसान ही। मिथ्यात्व अर अज्ञान अविरत-भाव एवं योग भी॥ इनके बिना है आसवों का रोध सम्यग्ज्ञानि के। अर आस्रवों के रोध से ही कर्म का भी रोध है। कर्म के अवरोध से नोकर्म का अवरोध हो। नोकर्म के अवरोध से संसार का अवरोध हो॥