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गाथा समयसार
सम्यग्दृष्टि के आस्रव जिसका निमित्त है - ऐसा बंध नहीं होता; क्योंकि उसके आस्रवों का निरोध है। नवीन कर्मों को नहीं बाँधता हुआ वह सम्यग्दृष्टि सत्ता में रहे हुए पूर्वकर्मों को मात्र जानता है। ( १६७ ) भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो । रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि ।।
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जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में । रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना || जीवकृत रागादि भाव ही नवीन कर्मों का बंध करनेवाले कहे गये हैं, रागादि से रहित भाव बंधक नहीं हैं; क्योंकि वे तो मात्र ज्ञायक ही हैं। ( १६८ )
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे | जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ।
पक्वफल जिसतरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से । बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से ॥ जिसप्रकार पके हुए फल के गिर जाने पर, वह फल फिर उसी डंठल पर नहीं बँधता, उसीप्रकार जीव के कर्मभाव के झड़ जाने पर फिर वह उदय को प्राप्त नहीं होता ।
( १६९ ) पुढवी पिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ।।
जो बँधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम ।
वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के ||
उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय पृथ्वी (मिट्टी) के ढेले के समान हैं और वे मात्र कार्मणशरीर के साथ बँधे हुए हैं।