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कर्ताकर्माधिकार
यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा। मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़॥ क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है। मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है। 'यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधता और क्रोधादिभाव में स्वयमेव नहीं परिणमता' – यदि ऐसा तेरा मत है तो यह जीव द्रव्य अपरिणामी सिद्ध होगा। जीव द्रव्य स्वयं क्रोधादिभावरूप परिणमित नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है।
यदि ऐसा माना जाये कि क्रोधरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमते हुए जीव को क्रोधकर्म, क्रोधरूप कैसे परिणमा सकता है ? ___ तथा यदि ऐसा माना जाये कि आत्मा स्वयं ही क्रोधभावरूप से परिणमता है तो फिर - क्रोधकर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है - यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।
अत: यह मानना ही ठीक है कि क्रोध में उपयुक्त आत्मा क्रोध ही है, मान में उपयुक्त आत्मा मान ही है और माया में उपयुक्त आत्मा माया ही है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ ही है।
(१२६-१२७) जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स सणाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ।। अण्णाणमओ भावोअणाणिणो कुणदितेण कम्माणि । णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तम्हा दुकम्माणि ॥
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।। अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का। बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना, विज्ञ कर्ता कर्म का ॥