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... --गाथा समयसार
चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है। हे भव्य ! तुम जीव को अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, अशब्द, अनिर्दिष्टसंस्थान, अलिंगग्रहण और चेतना गुणवाला जानो।
(५०) जीवस्स णत्थि वण्णो ण विगंधोण विरसोण वियफासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।।
शुध जीव के रस गन्ध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना।
यह देह ना जरूप ना संस्थान ना संहनन ना॥ जीव के वर्ण नहीं है, गन्ध भी नहीं है, रस और स्पर्श भी नहीं है; रूप भी नहीं है, शरीर भी नहीं है, संस्थान और संहनन भी नहीं है।
जीवस्स णत्थि रागोण वि दोसोणेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि।।। ना राग है ना द्वेष है ना मोह है इस जीव के।
प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के || जीव के राग नहीं है, द्वेष नहीं है और मोह भी विद्यमान नहीं है; प्रत्यय नहीं है, कर्म भी नहीं है और नोकर्म भी नहीं है।
(५२) जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि ।। ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं।
अर नहीं है अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी॥ जीव के वर्ग नहीं है, वर्गणा नहीं है और कोई स्पर्धक भी नहीं है; अध्यात्मस्थान और अनुभागस्थान भी नहीं है।