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गाथा समयसार
मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जानें समय ॥ स्व- पर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि 'मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ' - ऐसा जो जानता - है, वह मोह से निर्मम है ।
( ३७ )
णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।
धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जानें समय ॥
स्व- पर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि ये धर्म आदि द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ - ऐसा जो जानता है, वह धर्म आदि द्रव्यों से निर्मम है ।
( ३८ ) अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारुवी । ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ।। मैं एक दर्शन - ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं । ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं | दर्शन - ज्ञान - चारित्र परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं सदा ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन - ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ और अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं, परमाणुमात्र भी मेरे नहीं हैं ।
( हरिगीत )
सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो
आतमा । आतमा ॥
नहाइये ।
जाइये ||३२||
- समयसार कलश पद्यानुवाद