________________
११६
गाथा समयसार
कर्म ज्ञान नहीं है; क्योंकि कर्म कुछ जानता नहीं है; इसलिए ज्ञान अन्य है और कर्म अन्य है - ऐसा जिनदेव कहते हैं।
धर्म ज्ञान नहीं है; क्योंकि धर्म कुछ जानता नहीं है; इसलिए ज्ञान अन्य है और धर्म अन्य है- ऐसा जिनदेव कहते हैं।
अधर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि अधर्म कुछ जानता नहीं है; इसलिए ज्ञान अन्य है और अधर्म अन्य है- ऐसा जिनदेव कहते हैं।
काल ज्ञान नहीं है; क्योंकि काल कुछ जानता नहीं है; इसलिए ज्ञान अन्य है और काल अन्य है - ऐसा जिनदेव कहते हैं।
आकाश ज्ञान नहीं है; क्योंकि आकाश कुछ जानता नहीं है; इसलिए ज्ञान अन्य है और आकाश अन्य है - ऐसा जिनदेव कहते हैं।
अध्यवसान ज्ञान नहीं है; क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिए ज्ञान अन्य है और अध्यवसान अन्य है- ऐसा जिनदेव कहते हैं।
चूँकि जीव निरन्तर जानता है; इसलिए यह ज्ञायक जीव ज्ञानी है, ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान ज्ञायक से अव्यतिरिक्त है, अभिन्न है - ऐसा जानना चाहिए।
बुधजन (ज्ञानीजन) ज्ञान को ही सम्यग्दृष्टि, संयम, अंगपूर्वगत सूत्र, धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) और दीक्षा मानते हैं।
(४०५ से ४०७) अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं । आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु॥ ण वि सक्कदि घेत्तुं जंण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं । सो को विय तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससोवा वि।। तम्हा दुजों विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि। णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ।।
आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक । ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा॥