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पूर्वरंग
को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
(१३)
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा । तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं। भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष - ये नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं ।
( १४ ) जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।
अबद्धपुटु अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को । संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ॥ satta आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित एवं अन्य के संयोग से रहित देखता है, जानता है; हे शिष्य ! तू उसे शुद्धनय जान ।
(१५)
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णमविसेसं । अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को । द्रव्य एवं भावश्रुतमय सकल जिनशासन लहे ॥
जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है। वह जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है ।