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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
कई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है। ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है । ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है। दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है । यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का । अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ॥ परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से | परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । बस त्यहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से || परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से || परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से | यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है व्यवहार का ।
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अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना || यद्यपि व्यवहार से परद्रव्यों का और आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है; दृश्य - दर्शक संबंध है, त्याज्य - त्याजक संबंध है; तथापि निश्चय से तो वस्तुस्थिति इसप्रकार है -
जिसप्रकार सेटिका अर्थात् खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई पर (दीवाल) की नहीं है; क्योंकि सेटिका ( कलई) तो सेटिका ही है; उसीप्रकार ज्ञायक आत्मा तो ज्ञेयरूप परद्रव्यों का नहीं है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है ।
जिसप्रकार कलई पर की नहीं है, कलई तो कलई ही है; उसीप्रकार दर्शक पर का नहीं है, दर्शक तो दर्शक ही है ।