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गाथा समयसार
( ३१९ - ३२० )
ण विकुव्व ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराई । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥ दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव । जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ॥
ज्ञानी करे- भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को । वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को || ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक । जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ॥
अनेक प्रकार के कर्मों को न तो ज्ञानी करता ही है और न भोगता ही है; किन्तु पुण्य-पाप रूप कर्मबंध को और कर्मफल को मात्र जानता ही है । जिसप्रकार दृष्टि (नेत्र) दृश्य पदार्थों को देखती ही है, उन्हें करतीभोगती नहीं है; उसीप्रकार ज्ञान भी अकारक व अवेदक है और बंध, मोक्ष, कर्मोदय और निर्जरा को मात्र जानता ही है ।
( ३२१ से ३२३ )
लोयस्स कुदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते । समणाणं पिय अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ ।। लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जड़ ण दीसदि विसेसो । लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि । । एवं ण को वि मोक्खो दीसदि लोयसमणाणं दोन्हं पि । णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ।।
जगत - जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को । रक्षा करूँ षट् काय की यदि श्रमण भी माने यही ॥ तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा। सम मान्यता में विष्णु एवं आतमा कर्ता रहा |