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पोरवाड ज्ञाति में लनादि शुम प्रसंग पर निम्न सुप्रभातिया गाया जाता है:
सजनी नी कुंख सुलक्षणी जी जेने ( नाम ) जाया। तेडो आयो राज को आदर से बुलाया ॥ घोडा दीधा हंसला ऊपर जीन सजाया । घुडलानी करो बेन्या आरती वीरो गढ जीति माया ।
यह भी पोरवाडों का क्षत्रिय होना सिद्ध करता है। इस ज्ञाति की लम विवाह की रीति भी इन्हें राजपूत सिद्ध करती है।
"प्राग्वाट" शब्द की उत्पत्ति तो ऊपर लिखी जा चुकी परंतु इसके संबंध में एक निम्न मतभेद प्रसिद्ध हुआ है। नागरी प्रचारिणी पत्रिका द्वितीय भाग संवत् १९७८ में श्रीयुत् महा महोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकरजी ओझा पृष्ट ३३६ में लिखते हैं कि:- "करनवेल [जबलपुर के निकट ] के एक शिलालेख में प्रसंग वशात् मेवाड के गुहिल वंशी राजा हंसपाल, वैशीसंह और विजयसिंह का वर्णन मिलता है। इसमें उनको “प्राग्वाट" का राजा कहा है। यथाः
प्राग्वाटे वनिपाल भाल तिलकः श्रीहंसपालो भवत्तस्मादभूभृदसुत सत्य समितिः श्रीवैरिसिंहाभधाः ॥
इंडि. एंटि. जि ७-१८ पृ. २१७.