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की पूजा करने लगे । वे लोग जहां जहां गये सर्वत्र विजयी हुए अतएव दिवाली पर उन्होंने देवी की महापूजा की। देवी उस पूजा से तुष्टमान हुई और उसने एक रात्रि में सात दुर्ग निर्माण करके इन लोगों को कहा कि तुम इन दुर्गों में रहकर मेरी पूजा करते जाओ । तुम्हारा सर्वत्र विजय होगा।
ऊपर की दोनों कथाओं का विचार करने से और उसमें का अलंकारिक अंश छोड देने से ज्ञात होता है कि उक्त दसहजार क्षत्रिय पुरखा के भेजे हुए अवश्य थे । वे पूर्व से श्रीमाल नगर में आये थे और इसीलिये “प्राग्वाट" कहाये थे।
पोरवाड ज्ञाति के लोगों के जो अन्य अनेक प्रशस्तियां शिलालेखादि प्रमाण मिले हैं उनमें से लगभग तीनसो वर्ष पहिले के लेखों में “ पोरवाड" इन शब्दों की जगह "प्राग्वाट" शब्द का ही प्रयोग किया गया है। यह शब्द संस्कृत है । परंतु जब संस्कृत का प्रचार कम होने लगा
और हिन्दी आदि भाषाएं प्रचलित हुई तब उसी का रूपांतर पोरवाड-पोरवाड हो गया । दूसरे ‘पौरवाल' शब्द में 'पौरव' शब्द खुल्लं खुल्ला दिख रहा है, और उक्त कथाओं से भी इनका पुरु वंशीय होना सिद्ध होता है । अतएव 'पौरवाल' यह शब्द इस ज्ञाति का पुरुवंशीय होने का भी द्योतक है।