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(त्रिस्तुतिपरामर्श.)
७१ आत्म कल्याणके लिये वाइसपरिसह-जो-जैनशास्त्रोंमें बयान फरमाये है-अपने बदनपर सहनकरना चाहिये, कोरीवातोंसे कामनही चलेगा, परलोकमें अपना धर्मही कामदेगा. जोशख्श अनेक साधुओके बीचमें वेधडक रैलविहार कररहेहै, तुमारी ताकात नही तुम उनकों रौकशको, लेखक दुसरोंकों चमकाकर सायत ! आपसमे अनबनाव कराना चाहतेहोगे मगर पीतांबरसंवेगी साधुलोग बडे चतरहोतेहै-वे-आपसमें अनवनाव कभीकरनेवाले नहीं. और फिर लेखक लिखताहै क्या ! उसपासथ्थेसे डरतेहो ? जवाबमें मालुमहो-वे-उसशुद्धसंयमीसे-नही डंरते-बल्के ! लेखक खुद डरताहै जभी तो दुसरोंकों लिखताहैकि-यदि वीतरागप्रणीतसूत्रोंका बलहै-तो-प्रकाशमें क्यौंनही आते ? मालुमहोता है लेखककों वीतरागप्रणीतसूत्रोंका बलनहीं है-जभी दुसरोको ऐसा लिखते है. और यहभी सबुत होताहै न्यायरत्नकी कलम लेखककों उमदा तौरसे चकित कररही है.
फिर लेखक यहभी लिखताहै-एकही-मनुष्य-समस्त पीतांबरोका धुर्रा उडा रहाहै, जवाबमें मालुमकरे वह पीतांबरोंका धुर्रा क्यों उडावे ? क्योंकि-वह-खुद पीतांबर है, धुरै उनकेलेखोंके उडरहेहै जो बेहुदा-वेंसनदबातें पेंशकरतेहै-और जैनमें-नयेनयेमजहब इख्तियार करतेहै, और फिर जोलिखाहैकि-इतनीभारीसमुदायमें क्या ! ऐसे पढे लिखे साधु-नही है-जो प्रकाशमें आवे, जवाबमें मालुमहो क्यों नहींहै ? बहुतहै, देखिये ! पढेलिखे हुवे-महाराजश्री झवेरसागरजी कैसे गीतार्थ हुचे, जिनोने व-मुकाम-रतलाम मुल्क मालवेमें मध्यस्थोंकी सभाकरके तीनथुइका परामर्शकिया, और तीनथुइके फैलावको-रोका, महाराजश्री आत्मारामजी-आनंदविजयजीने चतुर्थस्तुतिनिर्णय-किताब बनाकर तीनथुइके फैलावको रोका सुरतमें-पंन्यासजी-श्रीयुत-चतुरविजयजीनेऔर-सनातन-जैनश्वेतांवर आनाय-चारस्तुतिमाननेवाले श्रावकोंने