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[२३] थे. यह बात तो शास्त्रप्रमाणों से प्रत्यक्ष ही देखनेमें आती है तिसपरभी विजय धर्म सूरिजी भगवान् की पूजा आरती के चढावे के देव द्रव्यको देखादेखी के नामसे निषेध करते हैं सो यह बड़ी भूल है. ... ४० अगर कहा जाय कि पूजा आरती के चढावे भगवान् की भक्तिके लिये देवद्रव्यकी वृद्धिके लिये करनेमें आते हैं तो फिर गांधगांक्में शहर शहरमें उनके ठहरावमें फरक क्यों देखा जाता है ? इस बातका जवाब यह है कि देखो खास २४ ही तीर्थंकर महाराज भव्य जीवों के हित के लिये मोक्ष मार्गका उपदेश देते थे मगर उनमें भी क्रियाके भेद होने से २२ तीर्थकर महाराजोंके साधु सवालक्ष रुपयोंके मूल्यवाली रत्नकंबल व पंचवर्णके बहुमूल्य वस्त्र ग्रहण करते थे और आदि अंतके दो तीर्थकर महाराजोंके साधु अल्प मूल्यवाली कंबल व जीर्ण प्रायः श्वेतमानी पेतवस्त्र ग्रहण करते हैं. इसी तरह प्रतिक्रमण, विहार, महाव्रतादिक उन्होंकी क्रिया में पुरुष विशेष से बाह्य भेद देखे जाते हैं मगर सबका ध्येय तो मोक्ष साधन का एकही है तथा पर्युषणा पर्वमें कल्पसूत्र के वरघोडे चढानेमें, व्याख्यान श्रवण करनेमें, प्रभावनादि करनेमें गांवोगांव शहरों शहरमें अलग अलग रिवाज देखनेमें आते हैं. मगर सबका ध्येय तो कल्पसूत्र पूरा सुननेका व पर्व आराधन का एकही है. औरभी देखो विचार करो साधुओं के श्रावकोंके हमेशा करनेकी खास जुरूरी किया भी कालदोष से वा गच्छादि भेदसे अलग अलग देखनेमें आती है, तो भी उसमें मोक्ष प्राप्तिके लिये सबका ध्येय तो एकही है. इसी तरह पूजा आरती के चढावे में भी गांवगांव के संघ के अनुकूल होवे, भगवान् की भक्ति विशेष होवे, देवद्रव्य की आवकमें सुभीता होवे वैसे अलग अलग रिवाज देखनमें आते हैं. मगर सबका देवद्रव्यकी वृद्धिरूप ध्येय तो एकही है. इसलिये पूजा आरती के चढावे के अलग अलग रिवाज देखकर कुतर्क करना और भोले जीवोंको भ्रममें गेरना यह बड़ी भूल है.