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________________ ही है तथा निन्हवों का सत्कार करनेवालों के लिये महानिशीथादि आगमोंमें यहांतक लिखा है कि, साधु--साध्वी--श्रावक-श्राविका जो कोई परपाखंडीकी प्रशंसा करे, जो निन्हवोंकी प्रशंसा करे, जो निन्हवोंके अनुकूल भाषण करे, जो निन्हवोंके स्थानपर जावे, जो निन्हवोंके साथ शास्त्र संबंधी पद--अक्षर की प्ररूपणा करे, जो निन्हवोंको बंदन पूजन करे, जो निन्हवोंके साथ सभामें आलाप संलाप करे वो परमाधर्मी होवे, संसार में परिभ्रमण करे. निन्हवोंको किसी तरहकी भी सहायता देनेवाले तीर्थकर गणधरादि महाराजाओंकी आशातना करने वाले होते हैं, इसलिये सम्यक्त्वधारी आत्मार्थियोंको विशेषावश्यक के वचनानुसार तो निन्हवों का मुंह देखनाभी योग्य नहीं है. सूयगडांगसूत्रके १३ वें अध्ययन की नियुक्ति के प्रमाण से गीतार्थ पूर्वाचार्यों की निर्दोष आचरणाको नहीं माननेवाले को जमालि, की तरह निन्हव कहा है. और देवद्रव्य की उचित रीतिसे वृद्धि करनेवालों को यावत् तीर्थकर गौत्र बांधनेका फल आत्मप्रबोधादि शास्त्रों में कहा है. भगवान् की पूजा--आरती--स्वप्नपालना--रथयात्रा वगैरह भक्तिके कार्यों के चढावों से देवद्रव्य की वृद्धि होती है, जैन शासन की उन्नति होती है और भक्ति से चढावे लेनेवालोंका कल्याण होता है. इस गीतार्थ पूर्वाचार्योंकी आचरणाका निषेध करनेवाला भी निन्हवोंकी पंक्तिमें गिनने योग्य है, उस निन्हवको जितनी सहायता देना उतनाही भगवान्का, शासनका, सर्व संघका गुन्हा करना है. उसका फल इस भवमें कायक्लेश, धननाश व अपकीर्ति और पर भवमें । संसार में परिभ्रमण होता है. इसलिये आत्महितैषी सज्जनोंको ऐसा करना हतकारी नहीं है. विशेष क्या लिखें. श्रीचतुर्विध सर्व संघ को अंतिम निवेदन. विजयधर्मसूरिजी और उन्होंको मंडलीवाले.. कहते थे कि देखो, अंदाज ४०० साधुओं में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, पन्यास, गणि
SR No.032002
Book TitleDev Dravya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherNaya Jain Mandir Indore
Publication Year1920
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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