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अपभ्रंशसाहित्य अकादमीका उद्भव तीर्थकर महावीर ने लगभग 2600 वर्ष पहले लोक-भाषा प्राकृत में उपदेश देकर जन-कल्याण किया। जैन साहित्य प्रचुरता से प्राकृत भाषा में लिखा गया। लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी में एक नई भाषा का जन्म हुआ जो अपभ्रंश कहलाई।90 प्रतिशत साहित्य अपभ्रंश भाषा में दिगम्बर जैनों द्वारा लिखा गया। अपभ्रंश भाषा प्रान्तीय भाषाओं के साथ हिन्दी की जननी बन गई। अतः 1988 में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ने अपभ्रंश साहित्य अकादमी की स्थापना की। बेल्जियम, स्लोवेनिया, यू.एस.ए., आस्ट्रेलिया, रूस आदि स्थानों से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने के लिए विद्यार्थी अपभ्रंश साहित्य अकादमी में आते हैं।
अपभ्रंशसाहित्य अकादमी के कार्य प्राकृत-अपभ्रंश के पाठ्यक्रम राजस्थान विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त हैं। वर्तमान में निम्न पाठ्यक्रम अकादमी से चलाये जा रहे हैं 1.अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम 2.अपभ्रंश डिप्लोमा पाठ्यक्रम 3.प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम 4.प्राकृत डिप्लोमा पाठ्यक्रम 5.जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम 6. जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति डिप्लोमा पाठ्यक्रम इनके अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य अकादमी व जैनविद्या संस्थान से क्रमशः निम्नलिखित पत्रिका प्रकाशित होती है 1.अपभ्रंश भारती 2.जैनविद्या
पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र प्राचीन पाण्डुलिपियों का आधुनिक पद्धति से संरक्षण
पुरस्कार जैन दर्शन के लिए महावीर पुरस्कार तथा अपभ्रंश के लिए स्वयंभू पुरस्कार दिया जाता
प्रकाशित साहित्य लगभग 125 पुस्तकें अपभ्रंश साहित्य अकादमी व जैनविद्या संस्थान से प्रकाशित हैं। यह गर्व की बात है कि अपभ्रंश साहित्य अकादमी जो कि 1988 से कार्यरत है विश्व की पहली अकादमी है और इसका श्रेय दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी को है।
अकादमी के नवीन भवन का भव्य निर्माण • दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ने मालवीय नगर में रियायती दर पर सरकार से 3,000 वर्ग गज जमीन प्राप्त की और आज अपभ्रंश साहित्य अकादमी के नवीन भवन का भव्य निर्माण किया जा रहा है।