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गुरु-शिष्य
दादाश्री : ज़रूरत तो है ही न! लेकिन हो सके उतना करना चाहिए, जितना हो सके उतना। तो आपको अधिक लाभ होगा।
प्रश्नकर्ता : आप परदेश जाओ तब यहाँ पर बिल्कुल खाली हो जाता है। यहाँ फिर कोई इकट्ठे ही नहीं होते।
दादाश्री : वैसा तो आपको खाली लगता है। हमें किसीको खाली नहीं लगता। पूरा दिन दादा भगवान साथ में ही रहते हैं। होल डे, निरंतर, चौबीसों घंटें साथ में रहते हैं दादा भगवान। मैं वहाँ फ़ॉरेन होऊँ तो भी! गोपियों को जिस तरह कृष्ण भगवान रहते थे न वैसे ही रहते हैं, निरंतर!
वह शिष्य कहलाए आपको स्पष्ट समझ में आया या नहीं? स्पष्ट रूप से समझ में आए तो हल आएगा। नहीं तो इसका हल किस तरह आएगा? जिस स्पष्टतापूर्वक मैं समझा हूँ और जिस स्पष्टता से मैं छूटा हूँ, संपूर्ण छूट गया हूँ, जो रास्ता मैंने अपनाया है, वही रास्ता मैंने आपको दिखाया है।
प्रश्नकर्ता : परंतु ऐसी बात बाहर का व्यक्ति तो किस तरह समझेगा?
दादाश्री : बाहरवाले को नहीं समझना है। यह तो आपको समझना है। दूसरे को समझ में आए वैसी यह बात नहीं है। वह तो जिसे जितना उतरे उतना उतरे! सभी शायद न भी समझ सकें। सभी दूसरों को इतनी शक्ति होनी चाहिए न! पचाने की शक्ति होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए? इन मनुष्यों का कोई ठिकाना नहीं है। दिमाग़ का ठिकाना नहीं, मन का ठिकाना नहीं, जहाँतहाँ चिढ जाते हैं, जहाँ-तहाँ लड़ पड़ते हैं। वे तो पहले के मनुष्य थे, स्थिरतावाले! ___वर्ना ये तो बदहाल हो चुके लोग हैं ! वहाँ पर बॉस झिड़कता है, घर पर पत्नी झिड़कती है, कोई ही व्यक्ति इससे बचा होगा। वर्ना अभी तो बदहाल हो गए हैं। अभी तो लोग गुरु के पास किसलिए जाते हैं? लालच के कारण जाते हैं कि, 'मेरा यह ठीक कर दीजिए। मेरा ऐसा हो जाए, गुरु मुझ पर कुछ कृपा करें और मेरे दिन बदल जाएँ।'