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गुरु-शिष्य
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दादाश्री : जिन्हें कोई लालच हो, वे वहाँ जाएँ। वे आपकी सारी लालच पूरी कर देंगे । जिसे वास्तविक चाहिए, उसे वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है। चमत्कार करके मनुष्य को स्थिर करते हैं न, लेकिन सच्चे बुद्धिशालियों को तो, ऐसा देखें तो उन्हें विकल्प खड़ा होगा!
गुरु कहाँ तक पहुँचाते हैं?
दो रास्ते हैं। एक सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ने का रास्ता, क्रमानुसार क्रमिकमार्ग और यह अक्रम मार्ग है, यह लिफ्ट मार्ग है । इसलिए फिर इसमें दूसरा कुछ करना नहीं है । वह क्रम से, उसमें जितने गुरु बनाएँ हों, उतने गुरु हमें चढ़ाते हैं। फिर वापिस गुरु भी आगे बढ़ते जाते हैं और ये भी बढ़ते जाते हैं। ऐसे करते-करते ठेठ तक पहुँचते हैं । लेकिन पहले दृष्टि बदले, उसके बाद से वह सच्चा गुरु और सच्चा शिष्य । दृष्टि नहीं बदले तब तक सब बालमंदिर! हाँ, गुरु पर मोह ज़रूर होता है, लेकिन आसक्ति नहीं होनी चाहिए। आसक्ति हो, वह तो बहुत ही खराब कहलाता है । आसक्ति तो वहाँ चलेगी ही नहीं न !
प्रश्नकर्ता : गुरु पर मोह हो, तो वह रुकावट करेगा या नहीं?
दादाश्री : मोह तो सिर्फ, 'मेरा कल्याण करते हैं' उतना ही ! कोई कहेगा, 'गुरु में अभिनिवेष (अपने मत को सही मानकर पकड़े रखना) हो तो?' उसमें हर्ज नहीं। वह तो अच्छा है । गुरु जहाँ तक पहुँचे हों, वहाँ तक तो पहुँचाएँगे । हम जिनकी भजना करें, वे जहाँ तक गए होंगे, वहाँ तक हमें पहुँचाएँगे।
प्रश्नकर्ता : जहाँ तक खुद पहुँचे होंगे, वहाँ तक ही पहुँचा सकेंगे?
दादाश्री : हाँ, हमारे शास्त्र इतना ही कहते हैं कि जहाँ तक गए हों, वहाँ तक पहुँचाएँगे। फिर आगे दूसरे मिल आएँगे ! और गुरु तो, वे जितनी सीढ़ियाँ चढ़े हों, उतनी सीढ़ियाँ हमें चढ़ा देते हैं। वे दस सीढ़ियाँ चढ़े हों और हम सात ही सीढ़ियाँ चढ़ पाए हों, तो हमें दस तक पहुँचा देते हैं अभी तो कितनी ही, करोड़ों सीढ़ियाँ चढ़नी हैं। ये कुछ थोड़ी-बहुत सीढ़ियाँ नहीं हैं ।
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