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गुरु-शिष्य
व्यवहार में गुरु की ज़रूरत है और निश्चय में ज्ञानीपुरुष की ज़रूरत है। दोनों की ज़रूरत है।
गुरु तो क्या करते जाते हैं? खुद आगे पढ़ाई करते जाते हैं और पीछेवालों को भी पढ़ाते जाते हैं। मैं तो ज्ञानीपुरुष हूँ, पढ़ना-पढ़ाना, वह मेरा धंधा नहीं है। मैं तो, यदि आपको मोक्ष चाहिए तो पूरा हल ला दूँ, दृष्टि बदल दूँ। हम तो, जो सुख हमने पाया है, वह सुख उसे प्रदान करते हैं और हट जाते हैं।
गुरु ज्ञान देते हैं और ज्ञानीपुरुष विज्ञान देते हैं। ज्ञान संसार में पुण्य बँधवाता है, रास्ता बताता है सारा। विज्ञान मोक्ष में ले जाता है। गुरु तो एक प्रकार के अध्यापक कहलाते हैं। खुद ने कोई नियम लिया हुआ हो और वाणी अच्छी हो तो सामनेवाले को नियम में ले आते हैं। दूसरा कुछ नहीं करते। लेकिन उससे संसार में वह मनुष्य सुखी हो जाता है। क्योंकि वह नियम में आ गया इसलिए। ज्ञानीपुरुष तो मोक्ष में ले जाते हैं। क्योंकि मोक्ष का लाइसेन्स उनके पास है।
सांसारिक गुरु हों, उसमें हर्ज नहीं है। सांसारिक गुरु तो रखने ही चाहिए कि जिन्हें हम फॉलो (अनुसरण) करें। लेकिन ज्ञानी, वे तो गुरु नहीं कहलाते। ज्ञानी तो परमात्मा कहलाते हैं, देहधारी रूप में परमात्मा! क्योंकि देह के मालिक नहीं होते हैं वे खुद। देह के मालिक नहीं होते, मन के मालिक नहीं होते, वाणी के मालिक नहीं होते।
गुरु को तो ज्ञानीपुरुष के पास जाना पड़ता है। क्योंकि गुरु के भीतर क्रोध-मान-माया-लोभ आदि की कमज़ोरियाँ होती हैं, अहंकार और ममता होते हैं। हम कुछ (चीज़ या वस्तु) दें तो वे धीरे से उसे अंदर रखवा देते हैं। अहंकार
और ममता, जहाँ देखो वहाँ पर होते ही हैं ! लेकिन लोगों को गुरुओं की भी ज़रूरत है न!
अनासक्त गुरु काम के प्रश्नकर्ता : अर्थात् बिना आसक्तिवाले गुरु चाहिए, ऐसा अर्थ हुआ न? दादाश्री : हाँ, बिना आसक्तिवाले चाहिए। आसक्तिवाले हों, धन की