________________
३०
गुरु-शिष्य
सिर पर ज्ञानी नहीं मिलें तब गुरु तक चाहिए। नहीं तो मनुष्य स्वच्छंदता से विहार करता रहेगा। इस पतंग की डोर छोड़ दें, फिर पतंग की क्या दशा होगी?
प्रश्नकर्ता : गुलांट खाएगी।
दादाश्री : हाँ, वह पतंग की डोर छोड़ने जैसा है। जब तक आत्मा हाथ में नहीं आया, तब तक पतंग की डोर छूटी हुई है। आपको समझ में आया न?
देखते ही सिर झुक जाए प्रश्नकर्ता : हाँ, गुरु बनाने ही चाहिए। गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता, वह सिद्धांत सही है?
दादाश्री : सही है। अब 'गुरु', वह विशेषण है। 'गुरु' शब्द ही गुरु नहीं है। 'गुरु' के विशेषण से गुरु हैं, अर्थात् ऐसे विशेषणवाले हों तो वे गुरु हैं और ऐसे विशेषणवाले हों तो भगवान!
प्रश्नकर्ता : सच्चे गुरु के लक्षण क्या हैं?
दादाश्री : जो गुरु प्रेम रखें, जो गुरु अपने हित में हों, वे ही सच्चे गुरु होते हैं। ऐसे सच्चे गुरु कहाँ से मिलेंगे! गुरु को देखते ही ऐसे अपना पूरा शरीर सोचे बिना ही (उनके चरणों में) झुक जाता है।
इसलिए लिखा है न, ___ 'गुरु ते कोने कहेवाय, जेने जोवाथी शीश झुकी जाय।'
देखते ही अपना मस्तक झुक जाए, उसका नाम गुरु। अतः यदि गुरु हों, तो विराट स्वरूप होने चाहिए। तो अपनी मुक्ति होगी, नहीं तो मुक्ति नहीं होगी।
गुरु आँखों में समाएँ, वैसे प्रश्नकर्ता : गुरु किसे बनाएँ, वह भी प्रश्न है न?