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गुरु-शिष्य
पोलम्पोल चला है, तो यह दशा हुई हिन्दुस्तान की । देखो तो सही !
हमसे घुमा-फिराकर नहीं बोला जा सकता। अब जगत् क्या ढूँढता है? पोला (कुछ भी) बोलकर भी ठंडक रखो, पोला बोलकर भी यहाँ दखल नहीं हो तो अच्छा। परंतु हमसे एक शब्द भी नहीं बोला जा सकता ऐसा । नहीं तो हमें तो वह भी आता था, पर नहीं बोल सकते। हमसे तो 'है उसे हैं' कहना पड़ता है और ‘नहीं है उसे नहीं' कहना पड़ता है । 'नहीं है, उसे है' नहीं कहा जा सकता और 'है उसे नहीं है' नहीं कहा जा सकता।
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गुरु खुद ही कहते हैं कि 'गुरु मत बनाना ।' तो आप कौन इस जगह पर? उसी प्रकार इस तरफ कहेंगे, 'निमित्त की ज़रूरत नहीं है ।' तब आप कौन हैं अभी?
निमित्त ही महा उपकारी
प्रश्नकर्ता : हाँ, उपादान हो तो ओटोमेटिक निमित्त मिल जाते हैं, वह बात प्रचलित है।
दादाश्री : उपादान तो अपने वहाँ बहुत लोगों का इतना अधिक उच्च कोटि का है, परंतु उन्हें निमित्त नहीं मिलने से भटकते रहते हैं । इसलिए वह वाक्य ही भूलवाला है, कि 'उपादान होगा तो निमित्त अपने आप आ मिलेंगे।' यह वाक्य भयंकर जोखिमदारीवाला वाक्य है । परंतु यदि ज्ञान की विराधना करनी हो तो ऐसा वाक्य बोलना !
प्रश्नकर्ता : निमित्त और उपादान के बारे में ज़रा विशेष स्पष्टता से समझाइए। यदि उपादान तैयार हो तो निमित्त अपने-आप मिल जाएगा । और यदि निमित्त मिलते रहें, परंतु उपादान तैयार नहीं हो तो फिर निमित्त क्या करेगा?
दादाश्री : वे सारी बातें लिखी हुई हैं न, वे सारी बातें करेक्ट नहीं हैं। करेक्ट में एक ही वस्तु है कि निमित्त की ज़रूरत है और उपादान की भी ज़रूरत है। परंतु उपादान कम हो और उसे निमित्त मिल जाए, तो उपादान बढ़ जाता है उसका।