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गुरु-शिष्य
भी नहीं लिया जाता। यहाँ फ़ीस रखी हो तो क्या दशा हो? एक बार 'ज्ञान' लेने के लिए तो आप खर्च दो, परंतु फिर कहोगे, 'ज्ञान को मज़बूती से पालेंगे, परंतु अब वापिस फ़ीस नहीं देंगे।'
यह तो हमलोग किसीका नाम दें, वह तो गलत कहलाएगा। यह तो आपको रूपरेखा दे रहा हूँ कि धर्म की क्या दशा हो गई है अभी। गुरु जो व्यापारी जैसे बन बैठे हैं, वह सब गलत है। जहाँ प्रेक्टिशनर होते हैं, फ़ीस रखते हैं, कि 'आज आठ-दस रुपये फ़ीस है, कल बीस रुपये फ़ीस है' तो वह सब बेकार है।
जहाँ पैसों का व्यापार है, वहाँ वे गुरु नहीं कहलाते। जहाँ टिकट है, वह तो सब रामलीला कहलाता है। परंतु लोगों को अभी भान नहीं रहा, इसलिए बेचारे टिकटवाले के वहीं पर जाते हैं। क्योंकि वहाँ पर झूठ है और यह खुद भी झूठा है, इसलिए दोनों एडजस्ट हो जाते हैं! अर्थात् बिल्कुल झूठ और बिल्कुल घोटाला चल रहा है।
ये तो फिर कहेंगे, 'मैं निस्पृह हूँ, मैं निस्पृह हूँ।' अरे, यह गाता क्यों रहता है? तू निस्पृही है, तो तुझ पर कोई शंका रखनेवाला नहीं है, और तू स्पृहावाला है, तो तू चाहे जितना कहे, फिर भी तुझ पर शंका किए बिना छोड़ेंगे नहीं। क्योंकि तेरी स्पृहा ही कह देगी, तेरी दानत ही कह देगी।
इसमें कमी कहाँ? ये तो सभी भीख के लिए निकल पड़े हैं। अपना पेट भरने निकले हैं, सब अपना-अपना पेट भरने के लिए निकले हैं। या फिर पेट नहीं भरना हो तो कीर्ति चाहिए। कीर्ति की भीख, लक्ष्मी की भीख, मान की भीख! यदि बिना भीख का मनुष्य हो तो उसके पास से जो माँगो, वह प्राप्त होगा। भीखवाले के पास हम जाएँ तो वह खुद ही सुधरा हुआ नहीं हो तो हमें भी नहीं सुधार सकता। क्योंकि दुकानें शुरू की हैं लोगों ने। ये ग्राहक मिल जाते हैं आराम से!
एक व्यक्ति मुझसे पूछता है कि, 'उसमें दुकानदारों का दोष है या ग्राहकों का दोष?' मैंने कहा, 'ग्राहकों का दोष! दुकानदार तो चाहे कैसी भी दुकान