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गुरु-शिष्य
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आपका बोल मुझमें उगना चाहिए। आपका बोल उगता नहीं है।' बोल कितने वर्ष का है? पुराना बोल, वह नहीं उगेगा। वाणी प्योर चाहिए, वचनबलवाली चाहिए। हम कहें कि, 'आपका वचन ऐसा बोलिए कि जिससे मेरे अंदर कुछ हो जाए।' वचनबल तो मुख्य वस्तु है। मनुष्य का वचनबल नहीं हो तो काम का ही क्या?
गुरु तो वे कहलाते हैं कि वे जो वाणी बोलें न, वह हममें अपने आप ही परिणमित हो जाए, वैसी वचनबलवाली हो! यह तो खुद क्रोध-मान-मायालोभ में होते हैं और हमें उपदेश देते हैं कि 'क्रोध-मान-माया-लोभ छोड़ो।' इसलिए यह सारा माल बिगड़ गया न ! सौ में से दो-पाँच अच्छे होंगे। वचनबल अर्थात् मुँह से बोले, वैसा सामनेवाले को हो जाए। अब ऐसा वचनबल नहीं हो, वह किस काम का?
मैं तो छोटा था, तब ऐसा कहा करता था कि, 'आप जो उपदेश देते हैं, ऐसा तो पुस्तक भी कहती है। तो आपमें और उसमें फर्क क्या रहा फिर? इससे तो पुस्तक अच्छी। आपके तो फिर ऐसे पैरों में पड़कर झुकना, उसके बदले पुस्तक अच्छी। आप ऐसा कुछ कहिए कि मेरे भीतर परिणमित हो, मेरा चित्त उसमें रहा करे।' यह तो क्या कहते हैं? 'करो, करो, करो, करो।' यह 'करो', तो क्या करूँ? होता नहीं मुझसे और ऊपर से वापिस करो, करो' करते रहते हैं। इसमें तो वचनबल चाहिए, वचनबल! वे बोलें उतना सामनेवाले को हो जाए, तब वे गुरु कहलाएँगे। नहीं तो वे गुरु नहीं कहलाएँगे। ज्ञानीपुरुष तो मोक्ष देते हैं। परंतु गुरु कब कहलाएँगे? वचनबल हो तब। क्योंकि उनके वचन में झूठ-कपट नहीं होता। उनके वचन में वचनबल होता है। आपको समझ में आता है मैं क्या कह रहा हूँ वह?
प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ।
दादाश्री : बहुत गहरी बात है। परंतु इन लोगों को किस तरह समझ में आए वह? चलती हैं दुकानें। चलने दो न! हम कहाँ माथापच्ची करें? काल के कारण चल रही हैं।
बाक़ी, आप जो कहते हैं, वह पुस्तक में कहते हैं। तब आपमें और