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गुरु-शिष्य
मैं वैसा!' वह भ्रांति में ही बोलता रहता है । 'मैं, मैं, मैं, मैं....' इसलिए सुधरता नहीं है न!
यह तो वीतराग मार्ग कहलाता है । बहुत ही जोखिमदारीवाला मार्ग है! एक शब्द भी बोलना बहुत जोखिमवाली वस्तु है । उपदेशकों को तो बहुत जोखिमदारी है अभी। परंतु लोग समझते नहीं हैं, जानते नहीं हैं, इसलिए ये उपदेश देते हैं। अब आप उपदेशक हो या नहीं, वह आप अपने आपको टटोलकर देखो। क्योंकि उपदेशक आर्तध्यान - रौद्रध्यान से मुक्त होना चाहिए । शुक्लध्यान नहीं हुआ हो तो भी हर्ज नहीं। क्योंकि धर्मध्यान की विशेषता बरतती है। परंतु आर्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों हुआ करते हों, तो जोखिमदारी खुद की है न! भगवान ने कहा है कि यदि क्रोध - मान-माया - लोभ की पूँजी आपके पास सिलक (जमापूँजी) में हो, तब तक किसीको उपदेश मत देना ।
इसलिए मुझे कहना पड़ा कि यह जो व्याख्यान देते हो, परंतु आपको सिर्फ स्वाध्याय करने का अधिकार है । उपदेश देने का अधिकार नहीं है । फिर भी यदि उपदेश दोगे तो यह उपदेश कषाय सहित होने के कारण नर्क में जाओगे। सुननेवाला नर्क में नहीं जाएगा। मुझे ज्ञानी होकर कठोर शब्द बोलने पड़े हैं। उसके पीछे कितनी करुणा होगी ! ज्ञानी को कठोर होने की क्या ज़रूरत है? जिन्हें अहर्निश परमानंद, अहर्निश मोक्ष बरतता हो, उसे कठोर होने की ज़रूरत क्या होगी? परंतु ज्ञानी होकर ऐसा कठोर बोलना पड़ता है कि, 'सावधान रहना, स्वाध्याय करना ।' लोगों से ऐसा कह सकते हैं कि, 'मैं स्वाध्याय कर रहा हूँ, आप सुनो।' परंतु कषाय सहित उपदेश नहीं देने चाहिए।
वचनबल तो चाहिए न
मैं आपको उपदेश देता रहूँ तो नहीं सीखोगे। परंतु आप मेरा वर्तन देखोगे तो वह आसानी से आ जाएगा। इसलिए वहाँ पर कोई उपदेश नहीं चलते है। यह तो वाणी बेकार जाती है । परंतु फिर भी हम उसे गलत नहीं कह सकते। यानी किसीका भी गलत नहीं है। परंतु उसका अर्थ कुछ भी नहीं है, सब मीनिंगलेस है। जिस बोल में कुछ वचनबल नहीं, उसे क्या कहेंगे? ऐसा उन्हें साफ-साफ कह दें हम कि 'आपका बोल ही खोटा है। बेकार क्यों जाता है?