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गुरु-शिष्य
आ जाती है। उसे शास्त्रकारों ने श्रद्धा की मूर्ति कहा है। किसी समय ही ऐसे अवतार अवतरित होते हैं, तब कल्याण हो जाता हैं! यह हमारा अवतार ही ऐसा है कि हम पर उसे श्रद्धा बैठ ही जाती है।
श्रद्धा की प्रतिमा बनना चाहिए। नालायक मनुष्य भी एक बार चेहरा देखे कि तुरंत श्रद्धा आ जाए। उस घड़ी उसके भाव, उसकी परिणति पलट जाए। देखते ही पलट जाए। वैसी प्रतिमा, श्रद्धा की प्रतिमा कभी-कभार ही जन्म लेती है। तीर्थंकर साहब थे वैसे!
इसलिए कैसा हो जाना चाहिए? श्रद्धा की प्रतिमा हो जाना चाहिए। परंतु श्रद्धा नहीं आए, उसका कारण क्या होगा? खुद ही! ये तो कहेगा, 'लोग श्रद्धा ही नहीं रखते, तो क्या करूँ?' अब जिन गुरु में बरकत नहीं हो, वे लोग ऐसा कहते रहते हैं कि 'मुझ पर श्रद्धा रखो।' अरे, लोगों को तुझ पर श्रद्धा ही नहीं आती, उसका क्या? तू वैसा बन जा, श्रद्धा की प्रतिमा, कि लोगों को देखते ही तुझ पर श्रद्धा बैठे।
फिर वैराग्य किस तरह आए? प्रश्नकर्ता : जो लोग उपदेश देते हैं, उनका आचरण उनके उपदेश से अलग होता है, तो श्रद्धा कहाँ से उपजे? ऐसा भी होता है न?
दादाश्री : इसलिए यह श्रद्धा बैठनी वह कोई ऐसी-वैसी बात नहीं है। रंजन के लिए ही ये सब उपदेश होते हैं। क्योंकि सच्चे उपदेश नहीं हैं यह। यह तो खुद का मनोरंजन हैं सारे।
प्रश्नकर्ता : हाँ, सिर्फ उपदेश रंजन होते हैं और इसीलिए ही तो वैराग का रंग लगता नहीं है।
दादाश्री : अब, वैराग्य का रंग कहाँ पर लगता है? कौन-सी वाणी से लगता है? जो वाणी सत्य हो उससे, जिस वाणी का उल्टे रास्ते उपयोग नहीं होता हो, जो वाणी सम्यक् वाणी होती है, जिसमें वचनबल हो, वहाँ रंग लगेगा। बाक़ी, ऐसे बैराग किस तरह आए? वैसा तो किताबें बोलती ही हैं न! जिस तरह किताबें बोलती हैं तो भी उसे वैराग नहीं आता, वैसे ही ये गुरु बोलते