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गुरु-शिष्य
डाले हैं। पार्टिशन वॉल रखी हुई है, इसलिए! ये तो होशियार लोग न! कोई कच्चे नहीं पड़ते, परफेक्ट (पक्के) हो चुके होते हैं।
और मेरा शब्द हर एक व्यक्ति, जो देहधारी मनुष्य है और जिसे बुद्धि की साधारण समझ है, बुद्धि डेवलप हुई है, उसे अवश्य कबूल करना ही पड़ता है। क्योंकि मेरा शब्द आवरणभेदी है, वह सभी आवरणों को तोड़कर आत्मा को ही पहँचता है। आत्मा का आनंद उत्पन्न करे वैसा है। इसलिए जिसमें आत्मा है, वह फिर वैष्णव हो या जैन हो या चाहे जो हो, जो मेरी यह बात सुनेगा, उसे श्रद्धा बैठनी ही चाहिए। फिर भी आडाई (अहंकार का टेढापन) करनी हो, जान-बूझकर उल्टा बोलना हो, वह अलग बात है। आड़े होते हैं न? समझते हैं, जानते हैं, फिर भी आड़ा बोलते हैं न? हिन्दुस्तान में आड़े हैं क्या लोग? आपने देखे हैं?
प्रश्नकर्ता : अधिकतर तो वैसे ही हैं।
दादाश्री : वह आड़ाई निकालनी है। कोई जान-बूझकर मतभेद डाले तो मैं उसे मुंह पर कहूँ कि, 'आपका आत्मा कबूल करता है, लेकिन आप आड़ा बोलते हैं यह।' ऐसा मैं कहूँ तब फिर वह समझ जाता है और कबूल करता है कि खुद आड़ा बोल रहा है। क्योंकि आड़ा बोले बगैर रहता नहीं न! किसलिए आड़ा बोलता है? माल भरा हुआ है उसने, आड़ाई करने का माल भरा हुआ है। इसलिए जिसका पुण्य आड़ा हो, उसे श्रद्धा नहीं बैठती। वर्ना, ज्ञानीपुरुष तो श्रद्धा की मूर्ति कहलाते हैं।
ज्ञानी, श्रद्धा की प्रतिमा ज्ञानीपुरुष ऐसे होते हैं कि उस मूर्ति को देखते ही श्रद्धा बैठ जाती है। श्रद्धा बैठ ही जाती है वैसी मूर्ति! श्रद्धेय कहलाते हैं, पूरे जगत् के लिए, पूरे वर्ल्ड के लिए! यह काल ऐसा विचित्र है कि श्रद्धा की मूर्ति नहीं मिलती। सभी मूर्तियाँ मिलती हैं, परंतु श्रद्धा की मूर्ति- निरंतर श्रद्धा बैठे वैसी मूर्ति नहीं मिलती। कभी ही जगत् में श्रद्धा की मूर्ति का जन्म होता है। श्रद्धा की मूर्ति अर्थात् देखते ही श्रद्धा आ जाए। फिर कुछ पूछना नहीं पड़ता, ऐसे ही श्रद्धा