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गुरु-शिष्य
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दादाश्री : बढ़ो, ज़रूर बढ़ो ! परंतु आप अपना भाव नहीं बिगाड़ोगे तो। गुरु के भीतर भगवान बैठे हैं, जीते-जागते। उस भीम ने लोटा रखा था तो भी चल गया था। आपकी श्रद्धा ही काम करती है न! किसी व्यक्ति ने गुरु बनाए हों और वे गुरु जब कभी थोड़ा-सा भी टेढ़ा बोलें, और यदि व्यक्ति को फिर भूल निकालने की आदत हो न, तो वह गिर जाएगा। यदि तुझमें गुरु सँभालने की शक्ति हो, तो गुरु चाहे जैसा उल्टा-सीधा करें या फिर गुरु को सन्निपात हो जाए तो भी सँभाल लो तब काम का । परंतु ठेठ तक निभाते ही नहीं हैं न ! निभाना आता ही नहीं न !
प्रश्नकर्ता : अयोग्य पुरुष में भी यदि पूर्ण श्रद्धा से स्थापना की हो तो वह फल देगी या नहीं?
दादाश्री : क्यों नहीं? परंतु उनका स्थापन करने के बाद हमें पलटना नहीं चाहिए ।
यह सब क्या है? आपको वास्तविकता बता दूँ? मैं आपको स्पष्ट कह दूँ? ये गुरु तो फल नहीं देते, आपकी श्रद्धा ही फल देती है । गुरु चाहे जैसे होंगे, परंतु अपनी दृष्टि फल देती है । यह मूर्ति भी फल नहीं देती, आपकी श्रद्धा ही फल देती है और जैसी-जैसी स्ट्रोंग आपकी श्रद्धा, वैसा ही तुरंत फल मिलता है !
ऐसा है, इस जगत् में श्रद्धा आती है और उड़ जाती है । एक सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही ऐसे हैं कि जो श्रद्धा की ही मूर्ति हैं, सभी को श्रद्धा आ जाती है। उन्हें देखते ही, बात करते ही श्रद्धा आ जाती है। ज्ञानीपुरुष श्रद्धा की मूर्ति कहलाते हैं। वे तो कल्याण कर देते हैं ! नहीं तो फिर भी आपकी श्रद्धा ही फल देती है।
श्रद्धा रखें या आनी चाहिए?
प्रश्नकर्ता : मैंने सभी धर्मों में अपनी दृष्टि से जाँच करके देख लिया है, परंतु मुझे आज तक कहीं भी श्रद्धा नहीं उपजी, वह हक़ीक़त है । ऐसा क्यों होता होगा? वहाँ क्या करें?