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क्रमिक मार्ग में नौ-बाड़ के कड़े पालन के साथ लक्ष्मी, गृह, स्त्री-पुत्रादि का त्याग करके, अहंकार करके वृत्तियों को विषय में से मोड़ने की प्रक्रिया है जबकि अक्रम मार्ग में किसी का भी निरोध नहीं है, मन का भी नहीं। केवल 'अक्रमविज्ञान' से मन के सारे विकारी परमाणुओं को विशुद्धि में विपरिणमित होने देना है। इस मार्ग में मुख्य लाभ तो यही होता है कि 'खुद' को 'आत्मपद' की प्राप्ति होने से अहंकार भाव छूट जाता है। फिर मन-वचन-काया की सारी अशुद्धियों को ज्ञान से पिघलाना होता है। अहंकार करके पालन किया गया ब्रह्मचर्य अत्यंत उपकारी है, फिर भी वह वैज्ञानिक तरीका नहीं कहलाता। क्योंकि उसमें ब्रह्मचर्य पालन करनेवाला वह 'खुद' ही है। जबकि वैज्ञानिक तरीके में तो 'खुद' रियल स्वरूप में रहता है, ज्ञाता-दृष्टा रहता है और 'रिलेटिव' भाग ब्रह्मचर्य का कैसा पालन करता है, उसे 'खुद' 'जानता' है। अक्रम मार्ग में यह विज्ञानमयी दृष्टि खुली होने की वजह से ब्रह्मचर्य का यथार्थ रूप से पालन किया जा सकता है
और 'खुद' अपने स्व-स्वभाव में भी एक्जेक्ट रह सकता है! आत्मज्ञान सहित पालन किया गया संपूर्ण शुद्ध ब्रह्मचर्य ही आत्यंतिक कल्याणकारी सिद्ध होता है।
परम पूज्य दादाश्री के एक घंटे के ज्ञान प्रयोग में ज्ञानाग्नि से तमाम पाप भस्मीभूत होकर वृत्तियाँ निज घर की ओर वापस लौटती हैं। अशुद्ध चित्त शुद्धता प्राप्त करके खुद 'शुद्ध चिद्रूप' शुद्धात्मा बनता है। फिर जो 'विषय' बचता है, वह 'डिस्चार्ज' भाग का है। पूर्व जन्म में जो उल्टी मान्यता थी कि 'विषय में सुख है', उसके कारण पैदा होनेवाले अभिप्राय के आधार पर वह आसक्ति टिकी रहती है। लेकिन जैसे जलेबी खाने के बाद चाय फ़ीकी लगती है, वैसे ही 'ज्ञानीपुरुष' से 'स्वरूपज्ञान' प्राप्ति के बाद विषय सुख फ़ीके लगते हैं। लेकिन विषय से संबंधित ‘रोंग बिलीफ' सर्वांश रूप से खत्म नहीं होने के कारण विषय टिका रहता है। 'ज्ञानीपुरुष' के वचन ही उन उल्टी मान्यताओं को खत्म करनेवाला एक मात्र ऐसा ज़बरदस्त हथियार है कि जिसके बगैर उल्टी मान्यताओं का टूटना असंभव है। 'रोंग बिलीफ' खत्म हुई कि अभिप्राय भी खत्म होने लगते हैं। जैसेजैसे अभिप्राय खत्म होते जाते हैं, वैसे-वैसे मन भी विषय के प्रति विरक्त
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