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विषयी-स्पंदन, मात्र जोखिम
की सिर्फ निंदा ही की है । निंदा यानी विषय को ऐसे जोखिम के रूप में बताया गया है। विषय के जो स्पंदन किए होंगे, तो उनका फल आए बगैर रहेगा ही नहीं न? आपने दरिया में एकबार ढेला फेंका तो स्पंदन उत्पन्न होते ही रहेंगे!
यानी विषय बहुत ही रोगिष्ठ चीज़ है ।
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भीतर नाच तो बाहर नाचनेवाली हाज़िर
सुबह-सुबह पाँच बार बोलना कि, 'इस जगत् की कोई विनाशी चीज़ मुझे नहीं चाहिए।' मुझे यानी 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उस तरह से और जो चाहिए, वह 'चंदूभाई' को चाहिए और चंदूभाई 'व्यवस्थित' के अधीन है। 'व्यवस्थित' में जो हो, सो भले हो और 'व्यवस्थित' में नहीं हो, वह भी भले हो। यदि इतना रहेगा तो भीतर कोई रस (रुचि) खड़ा हुआ या नहीं, आपको उसका पता चलेगा। खास करके अन्य कोई रुचि खड़ी हो ऐसा नहीं है, लेकिन इस काल में वातावरण इतना दूषित हो गया है कि स्त्री को पुरुष की ओर देखते समय और पुरुष को स्त्री की ओर देखते समय आँख गड़ाकर नहीं देखना चाहिए। नहीं तो अन्य और कोई खास दोष खड़ा हो, ऐसा नहीं है। या फिर जैसा ऊपर बताया है, सुबह वैसा बोलकर करना, क्योंकि आपमें वैसा वैराग्य नहीं है। आपमें जागृति है, लेकिन संपूर्ण रूप से जितनी जागृति होनी चाहिए वह नहीं रह पाती, क्योंकि अभी तक पृथक्करण नहीं हुआ है।
जागृति तो उसे कहते हैं कि किसी स्त्री को देखो या पुरुष को देखो, चाहे किसी को भी देखो, तो राग होने से पहले उसका पूरा हिसाब दिखाई दे जाए। इस चमड़ी की वजह से सब सुंदर दिखता है लेकिन इस चमड़ी को निकाल दिया जाए तो कैसा दिखेगा ? यह गठरी बाँधी हुई हो, और उस पर से कपड़ा निकाल दें तो कैसा दिखेगा ? जागृत को तो वैसा ही दिखाई देता है सब। संपूर्ण जागृति कब कहलाती है ? यह सब उसे, वैसा ही दिखाई दे। लेकिन इस काल की वक्रता ऐसी है कि वह जागृति को टिकने नहीं देती, इसलिए सावधान रहना चाहिए। नहीं तो फिर रोज़ सुबहसुबह बोलना और उस के प्रति 'सिन्सियर' रहना।