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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
नहीं आता। जहाँ दृष्टि बिगड़े, वहाँ पर प्रतिक्रमण करता है और वापस दृष्टि बिगाड़ना तो चलता ही रहता है।
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दादाश्री : उसीका नाम 'व्यवस्थित' है न! उल्टा समझकर सेट कर दिया और कह दिया 'व्यवस्थित' ! नहीं है वह 'व्यवस्थित' ! यह तो अपनी समझ से सेट कर दिया कि प्रतिक्रमण कर लेगा तो खास परेशानी नहीं होगी । फिर इसका ऐसा नहीं और उसका वैसा नहीं ।
मनुष्य को 'स्ट्रोंग' रहना चाहिए। खुद परमात्मा ही है! परमात्मा क्यों नहीं दिखते? ऐसे सब उल्टे लक्षण हो गए हैं, इसलिए । अब तुझे ज़रा ज़्यादा जागृति से काम लेना है, और ज़्यादा तो मन को पकड़ना है। मन ढीला हो गया है। पहले मन नहीं बिगड़ा था, अभी तो मन बिगड़ गया है। पहले शरीर बिगड़ा हुआ था, तब मन सुधरा हुआ था। दवाई के कारण शरीर तंदुरस्त हो गया, तो देख नुकसानदेह हो गया। पहले ऐसा नहीं था । मैंने सारा हिसाब निकाला था । विषय घेर लें तब फिर आगे का कुछ दिखाई नहीं देता। वह मनुष्य को अंध बना देता है । हिताहित का भान नहीं रहता । 'अगले जन्म में क्या होगा ?' जगत् को इसका भान ही नहीं है । हिताहित का भान ही कहाँ है ?
अहंकार करके भी विषय से छूट
जाओ
'अतिपरिचयात् अवज्ञा'। इन पाँच विषयों का अनादिकाल से अवगाढ़ परिचय होने के बावजूद भी उनकी अवज्ञा नहीं होती, वह भी आश्चर्य है न! क्योंकि एक-एक विषय के अनंत पर्याय हैं ! उनमें से जिस विषय के जितने पर्यायों का अनुभव हुआ, उतने पर्यायों की अवज्ञा हुई और उतने छूट गए! पर्याय अनंत होने के कारण अनंतकाल तक भटकना पड़ेगा और पर्याय अनंत होने के कारण अंत भी नहीं आएगा! यह तो, ज्ञान के बिना इसमें से छूट ही नहीं सकते ।
अपना मार्ग हर तरह से साहजिक है, लेकिन विषय के बारे में साहजिक नहीं है। इस विषय को तो इगोइज़म करके भी उड़ा देना है। क्योंकि यह चरम शरीरी नहीं है ! इसलिए अहंकार करके भी आज्ञा में रहना।