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हरिजनवास हो, फिर भी ! आज तो हर जगह दृष्टि बिगड़ती रहती है ! इसके परिणाम का पता नहीं है, इसी कारण से लोग भयंकर नुकसान उठा रहे
हैं।
हम ड्रेसअप और मेकअप करके किसी को आकर्षित करें, उसमें अपनी ही ज़िम्मेदारी है । अतः वीतरागों ने कहा है, 'अपने से, सामनेवाले को अपने निमित्त से मोह न हो जाए, दुःख नहीं हो उसकी जागृति हमें रखनी चाहिए।' इसीलिए तीर्थंकरों ने लुंचन (खींचकर बाल उखाड़ने की क्रिया) अपनाया था। आजकल रूप है ही कहाँ ? ये तो मेकअप की वजह से ठीक लगती हैं और अहंकार से और अधिक बदसूरत दिखाई देती हैं। सुंदर चमड़ीवालों को मोह ज़्यादा होता है और वे ज़्यादा भोग लिए जाते
हैं।
तीर्थंकर सुंदर नहीं होते लेकिन लावण्यमय होते हैं। बहुत ही सुडौल और अंग-उपांग संतुलित होते हैं । निरअहंकारी का, ब्रह्मचर्य का तेज अद्भुत होता है !
शास्त्रकारों ने विषय सुख का वर्णन दाद की बीमारी के समान किया है। उसमें क्या स्वाद ?
प्राचीन ऋषिमुनि एक पुत्रदान जितना ही विषय सेवन करते थे। फिर पूरी ज़िंदगी में कभी भी नहीं । फिर तो परस्पर मोक्षमार्ग के साथी के रूप में, परस्पर पूरक बनकर जीते थे। साथ मिलकर आत्मा हेतु ही साधना, भक्ति आदि किया करते थे ।
श्रीमद् राजचंद्रजी ने तो यहाँ तक कहा है कि विषय भोग का स्थान वमन करने योग्य भी नहीं है, जो सर्व प्रकार से जुगुप्सा उपजाए, वैसा सब है उसमें।
शास्त्रों में स्त्री को नर्क की खान कहा है, बहुत ही बुरा कहा है। लेकिन मोक्षमार्ग में ऐसा नहीं होता । स्त्री तो देवी है। फिसलन के लिए पुरुष की कमज़ोरी ज़िम्मेदार है, न कि स्त्री ।
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यह तो जितने लोगों ने शादी की, उतनों ने ऐसी हवा फैलाई है
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