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अणहक्क के विषयभोग, नर्क का कारण
में खुद के घर में ही दग़ा होता है। कलियुग यानी दरो का काल। कपट
और दगा, कपट और दग़ा, कपट और दगा! ऐसा किस सुख के लिए करते हैं? वह भी भान बिना, अभानता में! बुद्धिशाली लोगों में दगा और कपट नहीं होता। निर्मल बुद्धिवालों के वहाँ कपट और दगा नहीं होता। यह तो, 'फूलिश' इन्सान के यहाँ आज दगा और कपट होते हैं। कलियुग है यानी सभी 'फूलिश' ही जमा हुए हैं न!
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह जो दग़ा और कपट होता है, उसमें भी राग और द्वेष काम करते हैं न?
दादाश्री : राग-द्वेष हैं, तभी यह सब कार्य होता है न! वर्ना जिसे राग-द्वेष नहीं हैं, उसे तो कुछ है ही नहीं न! राग-द्वेष नहीं हों, तो जो कुछ भी करे, कपट करे तो भी हर्ज नहीं है और अच्छा करे तो भी हर्ज नहीं है। क्योंकि वह धूल में खेलता ज़रूर है, लेकिन तेल नहीं लगाया और राग-द्वेषवाला तो तेल लगाकर धूल में खेलता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दग़ा और कपट करने में बुद्धि का योगदान तो है ही न?
दादाश्री : नहीं, अच्छी बुद्धि कपट और दग़ा निकाल देती है। बुद्धि 'सेफसाइड' रखती है। एक तो शंका मार डालती है, फिर कपट और दग़ा तो होता ही है और फिर हर कोई खुद के सुख में ही मग्न होता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन खुद के सुख में रहने के लिए बुद्धि का उपयोग करके दगा और कपट खेल सकते हैं न?
दादाश्री : जहाँ खुद अपना सुख ढूँढते हैं, वहाँ अच्छी बुद्धि होती ही नहीं न! अच्छी बुद्धि तो सामुदायिक सुख ढूँढती है कि मेरा सारा परिवार सुखी हो जाए। लेकिन यह तो बेटा अपना सुख ढूँढता है, पत्नी अपना सुख ढूँढती हैं, बेटी अपना सुख ढूँढती है, बाप अपना सुख ढूँढता है, सभी अपना-अपना सुख ढूँढते हैं। यदि यह बात बता दें न तो परिवार के लोग साथ में रहेंगे ही नहीं। लेकिन ये तो सभी साथ रहते हैं और खाते-पीते हैं ! ढंका हुआ है, वही अच्छा है।