________________
नहीं चलना चाहिए, मन के कहे अनुसार (खं-2-५)
१६७
दादाश्री : अपना मुख्य सिद्धांत नहीं टूटना चाहिए। 'ब्रह्मचर्य पालन करना है,' यह सिद्धांत नहीं टूटना चाहिए। बाकी सब तो खुद का व्यवहार सँभालने के लिए थोड़ा बहुत करना पड़ता है। तू वहाँ सो मत जाना। यहाँ घर पर सोना। वहाँ ऐसा सब कर सकते हो तुम। लेकिन बाकी सब में तो ब्रह्मचर्य पालन करना
और अब्रह्मचर्य का सौदा करना, ये दोनों साथ में नहीं चलेगा। उससे अच्छा तो शादी कर लेना। दही में और दूध में दोनों में नहीं रहा जा सकता। फिर तो भगवान आएँ तब भी ऐसा कह देना कि 'नहीं मानूँगा'। बाकी सब चला लेंगे। यदि तुम्हें सिद्धांत का पालन करना हो तो।
प्रश्नकर्ता : मन घेर ले, देह घेर ले, ऐसी स्थिति खड़ी न हो जाए, उसके लिए उसके स्टार्टिंग पॉइन्ट से ही (शुरूआत में) सावधानी से चलना है?
दादाश्री : चारों ओर से सभी संयोग घेर लेते हैं, देह भी बहुत पुष्टि बताएगी, मन भी पुष्टि बताएगा, बुद्धि उसे हेल्प करेगी और आपको अकेले को फेंक देगी।
प्रश्नकर्ता : मन का सुनना शुरू किया, तभी से खुद का वर्चस्व चला ही गया न?
दादाश्री : मन का सुनना ही नहीं चाहिए। खुद आत्मा है, चेतन। मन जो है वह निश्चेतन चेतन है, जिसमें बिल्कुल भी चेतन नहीं है। मात्र कहने के लिए, व्यवहार के लिए ही चेतन कहलाता है।
वह तो तीन दिन तक मन पीछे पड़ा रहे तो उस समय आप 'चलो, चलते हैं फिर' कहोगे न! तेरे पीछे कभी मन पड़ा है? ऐसे करना पड़ा है कभी कुछ? पहले मना किया, मना किया, फिर मन बहुत पीछे पड़े तो कर देता है तू?
प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसा हुआ है। दादाश्री : इसका क्या कारण है? मन बहुत कहता रहे