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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
दादाश्री : सिर्फ ब्रह्मचर्य ही ऐसा है कि आप निभा सकते हो। किसी ने तय किया हो कि शादी नहीं करनी है, तो निभा सकोगे। अपना ज्ञान ऐसा है, इसलिए निभा सकते हैं। अन्य कर्म तो छोड़ेंगे ही नहीं न?
प्रश्नकर्ता : यह शादीवाला कर्म हमारे पीछे नहीं पड़ेगा?
दादाश्री : बहुत गाढ़ होगा तो पीछे पड़ेगा। और यदि वह गाढ़ होगा तो पहले से ही पता चल जाएगा। उसकी गंध आ जाएगी। लेकिन वह ज्ञान से राह पर आ जाता है। अपना यह ज्ञान ऐसा है कि इस कर्म को खत्म कर सकता है। लेकिन ये दूसरे कर्म तो खत्म नहीं हो सकते न!
ये तो, जैसे छोटे-छोटे बच्चों ने तय किया हो न कि 'हमें शादी नहीं करनी है,' उस तरह की बातें हैं। कितना तो समझे बगैर हाँकते रहते हैं। शादी नहीं करोगे, उसमें हर्ज नहीं। 'व्यवस्थित' में हो और शादी नहीं करोगे तो हमें हर्ज नहीं है। लेकिन 'व्यवस्थित' में नहीं हो और बाद में बड़ी उम्र में शोर मचाए कि मैं शादी किए बिना रह गया, तो कौन कन्या देगा? जिसके व्यवस्थित में ब्रह्मचर्य है वह ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है, क्योंकि वह मन की मानता ही नहीं है। बिल्कुल भी नहीं न! मन की कोई भी बात नहीं माननी चाहिए। अपने अभिप्राय की ही मानना अगर मन का ज़रा सा भी सुनें तो फिर अगली बार वापस चढ़ बैठेगा।
प्रश्नकर्ता : मन बताए कि 'सत्संग में बैठना है,' तो?
दादाश्री : अपना अभिप्राय वही रहे तो वैसा करना। अपने अभिप्राय में हो तो करना। अभिप्राय नहीं हो तो नहीं।
प्रश्नकर्ता : मेरा मन ऐसा सब बताता है कि सत्संग में बैठना है, दादा के पास जाना है।
दादाश्री : मेरा कहना है कि यदि मन अपने अभिप्राय के अनुसार चल रहा हो तो हमें एक्सेप्ट है।