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मुक्ति मिलती है। पूरे दिन में हुए थोड़े से भी विचार दोष या दृष्टि दोष का प्रतिक्रमण करके तथा उन दोषों का, विषय के स्वरूप का, उसके परिणामों का, उसके प्रति जागृति का, उपायों का पृथक्करण सामायिक में होता है। वास्तव में तो विषय दोषों का प्रतिक्रमण 'शूट ऑन साईट' करना ही चाहिए। फिर भी अगर अजागृति से छूट गया हो या फिर जल्दी में अधूरा हुआ हो, तो फिर जब सामायिक में स्थिरतापूर्वक संपूर्णत: गहराई से 'एनैलिसिस' होता है, तब जाकर वे दोष धुलते हैं।
___ जब विषय की गाँठे फूटती रहती हो, चित्त विषय में ही खोया रहता हो, बाह्य संयोग भी विकार को उत्तेजित करनेवाले मिलें, ऐसे समय में कई बार श्रुतज्ञान भी काम में नहीं आता, वहाँ पर तो तब 'ज्ञानीपुरुष' के पास प्रत्यक्ष में ही उलझनों की आलोचना करें, प्रतिक्रमण करें, प्रत्याख्यान करें तभी हल आता है!
विषय रोग पूरी तरह से कपट के आधार पर ही टिका हुआ है और कपट किसी को बता दिया जाए तो विषय निराधार बन जाता है! निराधार विषय फिर कितना खींच सकेगा? विषय को निर्मल करने के लिए 'यह' सबसे बड़ी, मूल और अति महत्वपूर्ण बात है। विषय से संबंधित भले ही कितना भी भयंकर दोष हो गया हो, लेकिन अगर उसकी 'ज्ञानीपुरुष' के पास आलोचना की जाए तो दोष से छूटा जा सकता है! क्योंकि इसमें पिछले गुनाह नहीं देखे जाते, उसका निश्चय देखा जाता है! विषय में से छूटने की जो तमन्ना जागृत होती है, वह अगर ठेठ तक टिके तो वह तमन्ना ही विषय से मुक्त करवाती है।
अखंड ब्रह्मचर्य पालन करने का ध्येय, उसमें ब्रह्मचर्य की आवश्यकता, ब्रह्मचर्य की सिद्धि के परिणाम स्वरूप प्राप्त होनेवाली आत्मसिद्धि की पराकाष्ठा, आत्मा का स्पष्ट अनुभव, आत्म सुख का स्पष्ट वेदन इत्यादि की निरंतर चिंतवना विषय की भ्रांत मान्यताओं से मुक्त करवाकर सही दर्शन फिट करवाता है। ऐसी चिंतवनवाली सामायिक बार-बार करनी चाहिए। उससे हर बार नया-नया दर्शन होता रहेगा और परिणामतः ध्येय स्वरूप हुआ जा सकेगा।
खुद का स्वरूप शुद्धात्मा है कि जो सूक्ष्मतम है और विषय मात्र
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