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प्रश्नकर्ता : कुछ लोग ऐसे होते हैं कि हम कितना भी अच्छा करें, लेकिन वे समझते ही नहीं ?
दादाश्री : सामनेवाला नहीं समझे तो वह अपनी ही भूल का परिणाम है। यह जो दूसरों की भूल देखते हैं, वह तो बिल्कुल गलत है। खुद की भूल से ही निमित्त मिलता है । यह तो जीवित निमित्त मिले तो उसे काटने दौड़ता है और अगर काँटा लगा हो तो क्या करेगा? चौराहे पर काँटा पड़ा हो, हज़ारों लोग गुज़र जाएँ फिर भी किसीको नहीं चुभता, लेकिन चंदूभाई निकले कि काँटा उसके पैर में चुभ जाता है। 'व्यवस्थित शक्ति' का तो कैसा है? जिसे काँटा लगना हो उसी को लगेगा। सभी संयोग इकट्ठे कर देगी, लेकिन उसमें निमित्त का क्या दोष?
कोई पूछे कि मैं अपनी भूलें कैसे ढूँढूँ? तो हम उसे सिखाते हैं कि तुझे कहाँ-कहाँ भुगतना पड़ता है? वही तेरी भूल । तेरी क्या भूल हुई होगी कि ऐसा भुगतना पड़ा? यह ढूँढ निकालना ।
मूल भूल कहाँ है?
भूल किसकी ? भुगते उसकी ! क्या भूल? तब कहते हैं कि 'मैं चंदूभाई हूँ' यह मान्यता ही आपकी भूल है। क्योंकि इस जगत् में कोई दोषित नहीं है। इसलिए कोई गुनहगार भी नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है ।
दुःख देनेवाला तो निमित्त मात्र है, लेकिन मूल भूल खुद की ही है। जो फायदा करता है, वह भी निमित्त है और जो नुकसान कराता है, वह भी निमित्त है, लेकिन वह अपना ही हिसाब है, इसलिए ऐसा होता है।
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