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मोक्ष में ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करनी है, सहज है।
सहज कैसे होते हैं? सुबह चाय दे तो पी लेते हैं और नहीं दे तो कोई बात नहीं। भोजन रख जाए तो खा लेते हैं वर्ना माँगकर नहीं खाते। एक महीने के लिए सहज योग करके देखने जैसा है ज़रूर!
मन, बुद्धि और अहंकार सभी अंदर शोर मचाएँ, उस समय अलग रहकर उन्हें देखे और जाने और बाहर सहज प्राप्त संयोग। जब खाना दे तो ठीक और नहीं दे, तब भी सहज! ऐसा सहज योग किसी-किसी में ही होता है। अरबों में एकाध को! अतः अपने अक्रम में तो यह सब झंझट ही खत्म कर दिया है। सहजरूप से जो मिला, वही सही। एक का आदर नहीं और दूसरे का अनादर भी नहीं। प्राप्त को भोगो।
सहज की प्राप्ति प्रारब्ध के अधीन नहीं है, वह ज्ञान के अधीन है।
क्या प्रयत्न करने से मिलनेवाली चित्त प्रसन्नता साहजिक कहलाती है? प्रयत्न अर्थात् रिलेटिव, अतः वह असहज ही होती है। रियल सहज होता है। प्रयत्न तो सहज प्रयत्न ही होने चाहिए। सहज शक्ति निर्विकल्प होती है।
प्रयास की ज़रूरत है लेकिन बीच में करनेवाला नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा कहेंगे कि प्रयास की ज़रूरत नहीं है तो लोग कुछ करेंगे ही नहीं और उल्टे रास्ते चलेंगे।
मन-वचन-काया की क्रियाओं में कोई बदलाव नहीं आता, मात्र कर्तापन की दखलंदाजी है। करनेवाला सिर्फ अहंकार है। 'मैं कर रहा हूँ' की मान्यता से वह अगले जन्म की ज़िम्मेदारी लेता है।
चाय याद आए, खाना याद आए तो ऐसा कहा जाएगा कि सहजता टूट गई है। अतः आहारी को सहज बनाना है।
जहाँ पर क्रोध-मान-माया-लोभ खत्म हो जाते हैं, वहाँ पर सहजता उत्पन्न हो ही जाती है!
दादाश्री के पास इसीलिए पड़े रहना है न! ताकि पूरे दिन उनकी सहजता देखने को मिलती रहे। दादा की कैसी निर्मल सहजता है! उनकी
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